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परिशिष्ट : सैंतालीस नय
शून्यनयेन शून्यागारवत्केवलोद्भासि ।।२२।। अशून्यनयेन लोकाक्रांतनौवन्मिलितोद्भासि॥२३॥
अत: यहाँ उदाहरण में जो खुली आँख और बन्द आँख की बात कही है, उसका अर्थ आचार्यदेव को मात्र इतना ही अभीष्ट है कि खुली आँख चारों ओर घूमती है और बन्द आँख अपने में ही रहती है। आँख जानती है और नहीं जानती है - यह बात यहाँ है ही नहीं।।२०-१२।।
सर्वगतनय और असर्वगतनय की चर्चा के उपरान्त अब शून्यनय और अशून्यनय की चर्चा करते हैं -
“आत्मद्रव्य शून्यनय से शून्य (खाली) घर की भाँति एकाकी (अकेला-अमिलित) भासित होता है और अशून्यनय से लोगों से भरे हुए जहाज की भाँति मिलित भासित होता है।।२२-२३॥"
अनन्तधर्मात्मक भगवान आत्मा के ज्ञानस्वभाव में अनन्त ज्ञेय (पदार्थ) प्रतिबिम्बित होते हैं; तथापि कोई भी ज्ञेय (पदार्थ) भगवान आत्मा में मिल नहीं जाता। तात्पर्य यह है कि अनन्त पदार्थों को जानकर भी यह भगवान आत्मा सूने घर की भाँति उनसे खाली ही रहता है। इस भगवान आत्मा का ऐसा ही स्वभाव है कि अनन्त पदार्थों को जानकर भी वह उनसे अमिलित रहता है, अलिप्त रहता है, शून्य रहता है।
भगवान आत्मा के इस अलिप्तस्वभाव को, अमिलितस्वभाव को, शून्यस्वभाव को ही शून्यधर्म कहते हैं और इस शून्यधर्म को विषय बनानेवाले सम्यग्ज्ञान के अंश को शून्यनय कहते हैं।
यद्यपि यह सत्य है कि कोई भी पदार्थ भगवान आत्मा में मिलता नहीं है; तथापि यह भगवान आत्मा उन्हें जानता अवश्य है। यदि इस जानने को ही मिलना कहें तो यह भी कह सकते हैं कि यह भगवान आत्मा लोगों से भरे हुए जहाज की भाँति अनन्त ज्ञेयों (पदार्थों) से भरा हुआ है, मिलित है, अशून्य है।
भगवान आत्मा के इस अशून्यस्वभाव को ही अशून्यधर्म कहते हैं और इस अशून्यधर्म को विषय बनानेवाले सम्यग्ज्ञान के अंश को अशून्यनय कहते हैं। __ तात्पर्य यह है कि भगवान आत्मा में एक शून्य नामक धर्म है और एक अशून्य नामक धर्म है तथा इनके कारण भगवान आत्मा शून्य भी है और अशून्य भी है।
शून्य नामक धर्म यह बताता है कि भगवान आत्मा अनन्त ज्ञेयों (पदार्थों) को