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सामान्यनयेन हारस्रग्दामसूत्रवद्व्यापि ।। १६ ।। विशेषनयेन तदेकमुक्ताफलवदव्यापि । । १७ ।। चार निक्षेप संबंधी नयों की चर्चा के उपरान्त अब सामान्यनय और विशेषनय की चर्चा करते हैं -
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प्रवचनसार
'आत्मद्रव्य सामान्यनय से हार-माला - कंठी के डोरे की भाँति व्यापक है और विशेषनय से उसके एक मोती की भाँति अव्यापक है ।। १६-१७ । । ”
जिसप्रकार हार या माला के प्रत्येक पुष्प में अथवा कंठी के प्रत्येक मोती में डोरा व्याप्त रहता है; उसीप्रकार भगवान आत्मा अपने सम्पूर्ण गुण व पर्यायों में व्याप्त रहता है।
तथा जिसप्रकार उसी कंठी या हार का एक मोती अन्य मोतियों में अथवा सम्पूर्ण कंठी या हार में व्याप्त नहीं रहता; उसीप्रकार भगवान आत्मा की एक पर्याय अन्य पर्यायों में अथवा सम्पूर्ण आत्मद्रव्य में व्याप्त नहीं रहती ।
भगवान आत्मा में एक सामान्य नामक धर्म है, जिसके कारण वह भगवान आत्मा अपने प्रत्येक गुण व अपनी प्रत्येक पर्याय में व्याप्त रहता है। आत्मा के इस सामान्यधर्म को जानने या कहनेवाले नय को सामान्यनय कहते हैं। इसीप्रकार भगवान आत्मा में एक विशेष नामक धर्म है, जिसके कारण भगवान आत्मा की एक पर्याय अन्य पर्यायों में अथवा सम्पूर्ण आत्मा में व्याप्त नहीं होती। आत्मा के इस विशेषधर्म को जानने या कहनेवाले नय को विशेषनय कहते हैं।
आत्मद्रव्य में स्वभावगत ही ऐसी विशेषता है कि वह अपने सम्पूर्ण गुणपर्यायों में व्याप्त रहता है, इसकारण उसे व्यापक कहा जाता है तथा एक ऐसी भी विशेषता है कि उसकी एक पर्याय सम्पूर्ण द्रव्य में नहीं व्यापती, अन्य पर्यायों में भी नहीं व्यापती, इसकारण उसे अव्यापक भी कहा जाता है। इसी बात को नयों की भाषा में इसप्रकार व्यक्त करते हैं कि आत्मा सामान्यनय से व्यापक है और विशेषनय से अव्यापक है।
'आत्मा व्यापक है'
इसका अर्थ लोक में ऐसा भी लिया जाता है कि वह सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है, पर यहाँ ऐसी बात नहीं है । यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि भगवान आत्मा अपने चैतन्यलोक में व्याप्त है, अपने सम्पूर्ण गुणों और पर्यायों में व्याप्त है, फैला हुआ है, पसरा हुआ है। भगवान आत्मा का परपदार्थों में व्याप्त होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है।
प्रवचनसार की २३ वीं गाथा में जो आत्मा को सर्वगत कहा गया है, उसका अर्थ तो
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