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प्रवचनसार
यदि वस्तु में सातों धर्म नहीं होते तो उनका कथन भी नहीं होता, क्योंकि वाचक वाच्य को ही तो बताता है।
आत्मा में स्व की अपेक्षा अस्तित्व है, पर की अपेक्षा नास्तित्व है - इन दोनों धर्मों का प्रतिपादन क्रमश: ही हो सकता है, एक साथ नहीं - इस अपेक्षा से आत्मा अस्तित्वनास्तित्व-अवक्तव्यधर्मवाला है। इस धर्म के नाम में तीन शब्द आये हैं; अत: उनके वाच्यरूप तीन भिन्न-भिन्न धर्म नहीं समझना, किन्तु तीनों के वाच्यरूपएक धर्म है- इसप्रकार समझना।
सप्तभंगी संबंधी सात नयों के विषयभूत अस्तित्वादि धर्म सभी पदार्थों के मूलभूत धर्म हैं। भगवान आत्मा भी एक पदार्थ है, परमपदार्थ है; अत: उसमें भी ये पाये ही जाते हैं। पर से भिन्न निज भगवान आत्मा की सम्यक् जानकारी के लिए इन सात धर्मों का जानना अत्यन्त आवश्यक है।
अस्तित्वधर्म यह बताता है कि प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व स्वद्रव्य-क्षेत्र-कालभावरूप स्वचतुष्टय से है; अत: किसी भी पदार्थ को अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए पर की या पर के सहयोग की रंच भी आवश्यकता नहीं है। भगवान आत्मा का अस्तित्व भी स्वचतुष्टय से ही है; अत: उसे स्वयं की सत्ता बनाये रखने के लिए पर के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है।
नास्तित्वधर्म यह बताता है कि प्रत्येक पदार्थ में परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप परचतुष्टय की नास्ति है; अत: किसी भी परपदार्थ का कोई भी हस्तक्षेप अन्य पदार्थ में संभव नहीं है। यह भगवान आत्मा भी नास्तित्वधर्म से सम्पन्न है; अतः हमें पर के हस्तक्षेप की आशंका से व्याकुल होने की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है।
पर का सहयोग भी एकप्रकार का हस्तक्षेप ही है। जब एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में पूर्णत: अभाव ही है, अप्रवेश ही है, तो फिर परस्पर सहयोग का प्रश्न ही कहाँ उठता है ?
अस्तित्वनास्तित्वधर्म के कारण ही परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले उक्त अस्तित्व एवं नास्तित्वधर्म वस्तु में एकसाथ रहते हैं। भले ही उनका एक साथ कहना संभव न हो, पर वे रहते तो वस्तु में एक साथ ही हैं। कहने में क्रम और रहने में अक्रम (युगपद्) - यही स्वभाव है अस्तित्वनास्तित्वधर्म का।
अस्तित्वनय स्व में स्वचतुष्टय की अस्ति, नास्तित्वनय स्व में परचतुष्टय की नास्ति