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परिशिष्ट : सैंतालीस नय
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अत: वह कथंचित् वक्तव्य भी है। इसप्रकार वह न सर्वथा वक्तव्य ही है और न सर्वथा अवक्तव्य ही; वह कथंचित् वक्तव्य और कथंचित् अवक्तव्य है। आत्मवस्तु का ऐसा ही अनेकान्तात्मक स्वरूप है।
यदि हम किसी भी वस्तु को सर्वथा 'अवाच्य' ('अवक्तव्य') कहें तो यह कथन स्ववचनबाधित ही होगा, क्योंकि हम स्वयं उसे अवाच्य (अवक्तव्य) शब्द से वाच्य बना रहे हैं। यह वचन तो उसीप्रकार का होगा, जिसप्रकार कोई व्यक्ति दूसरे से कहे कि मेरा आज मौनव्रत है। 'मेरा आज मौनव्रत है' - ऐसा कहकर स्वयं ही उसने अपने मौनव्रत को भंग किया है। इसीप्रकार 'आत्मा अवक्तव्य है' - ऐसा कहकर हम स्वयं आत्मा को 'अवक्तव्य' शब्द से वाच्य बना रहे हैं।
वस्तुत: बात तो ऐसी है कि किसी भी वस्तु के सम्पूर्ण पक्षों को, गुण-धर्मों को एक साथ कहना संभव न होने से सभी वस्तुएँ कथंचित् अवाच्य हैं और वस्तु के विभिन्न धर्मों का क्रमशः प्रतिपादन शक्य होने से सभी वस्तुएँ कथंचित् वाच्य भी हैं।
यद्यपि जिससमय स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से भगवान आत्मा में अस्तित्वधर्म है, उसीसमय परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से नास्तित्वधर्म भी है; तथापि जिससमय अस्तित्वधर्म का प्रतिपादन किया जा रहा हो, उसीसमय नास्तित्वधर्म का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता है; पर क्रम से उनका प्रतिपादन संभव है।
भगवान आत्मा के अनन्तधर्मों का या परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनन्तधर्मयुगलों का युगपद् प्रतिपादन असंभव होना अवक्तव्य नामक धर्म का कार्य है और क्रमश: प्रतिपादन संभव होना वक्तव्य नामक धर्म का कार्य है।
यद्यपि ४७ नयों में वक्तव्य नामक कोई नय नहीं है और सप्तभंगी में वक्तव्य नामक कोई भंग भी नहीं है, तथापि सभी ४७ नयों से आत्मा को वाच्य तो बनाया ही जा रहा है, यदि भगवान आत्मा कथंचित् भी वाच्य नहीं होता अर्थात् उसमें वाच्य बनने की शक्ति, स्वभाव, धर्म नहीं होता तो वह प्रमाण-नयों से वाच्य भी कैसे बनाया जा सकता था ? अत: उसमें वाच्य नामक धर्म भी है ही ।
सप्तभंगी के आरम्भ के तीन भंग वक्तव्य और अन्त के चार भंग अवक्तव्य के हैं । जिसप्रकार सप्तभंगी के अंतिम तीन भंगों को हम इसप्रकार व्यक्त करते हैं कि अस्तिअवक्तव्य, नास्ति-अवक्तव्य और अस्तिनास्ति - अवक्तव्य; उसीप्रकार आरम्भ के तीन भंगों को इसप्रकार भी व्यक्त कर सकते है कि अस्तिवक्तव्य, नास्तिवक्तव्य, अस्तिनास्तिवक्तव्य ।