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चरणानुयोगसूचकचूलिका : पंचरत्न अधिकार
इति तत्त्वप्रदीपिकायां श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां प्रवचनसारवृत्तौ चरणानुयोगसूचिका चूलिका नाम तृतीय: श्रुतस्कन्धः समाप्तः । । ३ । ।
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ग्रन्थाधिराज प्रवचनसार की इस अन्तिम गाथा में जिनेन्द्र भगवान के प्रवचनों के सार इस प्रवचनसार में प्रतिपादित तत्त्वज्ञान को, ज्ञानतत्त्व को, ज्ञेयतत्त्व को और श्रमणों के आचरण संबंधी सम्पूर्ण प्रकरण को जो गहराई से समझेंगे, तदनुसार अपने जीवन को ढालेंगे; उन्हें अल्पकाल में ही मुक्ति की प्राप्ति होगी ।। २७५ ।।
इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार की आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीका और डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत ज्ञान - ज्ञेयतत्त्वप्रबोधिनी हिन्दी टीका में चरणानुयोगसूचकचूलिका महाधिकार के अंतर्गत पंचरत्न अधिकार समाप्त होता है ।
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हमें आध्यात्मिक ग्रन्थों के स्वाध्याय की वैसी रुचि भी कहाँ है, जैसी कि विषयकषाय और उसके पोषक साहित्य पढने की है। ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जिन्होंने किसी आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक या दार्शनिक ग्रन्थ का स्वाध्याय आद्योपान्त किया हो । साधारण लोग तो बँधकर स्वाध्याय करते ही नहीं, पर ऐसे विद्वान भी बहुत कम मिलेंगे जो किसी भी महान ग्रन्थ का जमकर अखण्डरूप से स्वाध्याय करते हों । आदि से अन्त तक अखण्ड रूप से हम किसी ग्रन्थ को पढ भी नहीं सकते तो फिर उसकी गहराई में पहुँच पाना कैसे सम्भव हो ? जब हमारी इतनी भी रुचि नहीं कि उसे अखण्ड रूप से पढ़ भी सकें तो उसमें प्रतिपादित अखण्ड वस्तु का अखण्ड स्वरूप हमारे ज्ञान और प्रतीति में कैसे आवे?
विषय-कषाय के पोषक उपन्यासादि को हमने कभी अधूरा नहीं छोड़ा होगा, उसे पूरा करके ही दम लेते हैं, उसके पीछे भोजन को भी भूल जाते हैं। क्या आध्यात्मिक साहित्य के अध्ययन में भी कभी भोजन को भूले हैं ? यदि नहीं, तो निश्चित समझिये हमारी रुचि अध्यात्म में उतनी नहीं, जितनी विषय-कषाय में है।
'रुचि अनुयायी वीर्य' के नियमानुसार हमारी सम्पूर्ण शक्ति वहीं लगती हैं, जहाँ रुचि होती है । स्वाध्याय तप के उपचार को भी प्राप्त करने के लिए हमें आध्यात्मिक साहित्य में अनन्य रुचि जागृत करनी होगी। धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ- १११-११२