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चरणानुयोगसूचकचूलिका : शुभोपयोगप्रज्ञापनाधिकार
४९५ से समझाते हैं और श्रमणाभासों की सभी प्रवृत्तियों का निषेध करते हैं। ___ अथाविपरीतफलकारणाविपरीतकारणसमुपासनप्रवृत्तिं सामान्यविशेषतो विधेयतया सूत्रद्वैतेनोपदर्शयति । अथ श्रमणाभासेषु सर्वा: प्रवृत्ती: प्रतिषेधयति -
दिट्ठा पगदं वत्थु अब्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहिं। वट्ठदु तदो गुणादो विसेसिदव्वो त्ति उवदेसो।।२६१।। अब्भुट्ठाणं गहणं उवासणं पोसणं च सक्कारं । अंजलिकरणं पणमं भणिदमिह गुणाधिगाणं हि ।।२६२।। अब्भुट्ठया समणा सुत्तत्थविसारदा उवासेया। संजमतवणाणड्ढा पणिवदणीया हि समणेहिं ।।२६३।।
दृष्ट्वा प्रकृतं वस्त्वभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः। वर्ततां ततो गुणाद्विशेषितव्य इति उपदेशः ।।२६१।। अभ्युत्थानं ग्रहणमुपासनं पोषणं च सत्कारः । अञ्जलिकरणं प्रणामो भणितमिह गुणाधिकानां हि ॥२६२।। अभ्युत्थेयाः श्रमणा: सूत्रार्थविशारदा उपासेयाः।
संयमतपोज्ञानाढ्याः प्रणिपतनीया हि श्रमणैः ।।२६३।। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) जब दिखें मुनिराज पहले विनय से वर्तन करो। भेद करना गुणों से पश्चात् यह उपदेश है।।२६१|| गुणाधिक में खड़े होकर अंजलि को बाँधकर| ग्रहण-पोषण-उपासन-सत्कार कर करना नमन ||२६२।। विशारद सूत्रार्थ संयम-ज्ञान-तप में आय हों।
उन श्रमणजन को श्रमणजन अति विनय से प्रणमन करे||२६३|| प्रकृत वस्तु अर्थात् जिसका प्रकरण चल रहा है - ऐसीनग्न दिगम्बर दशा को देखकर हे श्रमण ! प्रथम तो अभ्युत्थान आदि क्रियाओं द्वारा उनका योग्य सत्कारादि करो; बाद में गुणानुसार भेद करना- ऐसा उपदेश है।
शास्त्रों में, गुणों में अधिक के प्रति अभ्युत्थान, ग्रहण, उपासन, पोषण, सत्कार, हाथ जोड़ना और प्रणाम करना कहा है।
श्रमणों के द्वारा जिनसूत्रों के मर्मज्ञ और संयम, तप और ज्ञान में समृद्ध श्रमण; अभ्युत्थान,