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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार
ऐसा कहा जाता है। कर्ता की अपेक्षा आत्मा को सर्वगत कहा जाता है और करण की अपेक्षा ज्ञान को सर्वगत कहा जाता है।
इस बात को यहाँ दूध में पड़े हुए इन्द्रनील रत्न का उदाहरण देकर समझाया गया है।
इन्द्रनील रत्न नीले रंग का होता है। उसका ऐसा स्वभाव है कि यदि उसे दूध में डाल दें तो उसकी प्रभा से सम्पूर्ण दूध नीला दिखाई देने लगता है। इसे ही ऐसा कहा जाता है कि दूध नीला हो गया । गहराई से देखें तो दूध नीला नहीं हुआ है, दूध तो सफेद ही है; क्योंकि यदि दूध में से रत्न को निकाल लिया जाय तो दूध सफेद ही दिखाई देगा।
इसका तात्पर्य यही है कि इन्द्रनील रत्न के डूबे होने पर भी दूध तो सफेद ही था; फिर भी लोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण दूध नीला हो गया है।
रत्न रत्न में है और दूध दूध में है तथा रत्न और दूध - दोनों ही संयोग के काल में भी अविकृत (अपने-अपने रूप) ही रहे हैं; तथापि रत्न की प्रभा से दूध रत्न के समान नीला दिखाई देता है। इसकारण व्यवहारनय से दूध को नीला कह दिया जाता है और उस रत्न की प्रभा सम्पूर्ण दूध में फैल गई कही जाती है।
इसीप्रकार ज्ञान में ज्ञेय प्रतिबिम्बित होते हैं तो ज्ञान ज्ञेयाकार दिखाई देने लगता है। यद्यपि ज्ञेयों को जानते समय भी ज्ञान तो ज्ञानरूप ही रहता है, ज्ञेयरूप नहीं होता और ज्ञेय ज्ञेयरूप रहते हैं, ज्ञानरूप नहीं होते; तथापि ज्ञेय ज्ञान में ज्ञात होते हैं; इसकारण ज्ञान को सर्वगत कहा जाता है और वे ज्ञेय ज्ञान में आ गये कहे जाते हैं।
पदार्थों का स्वयं का स्वरूप है बिंब और दर्पण में झलकता हुआ उनका रूप है प्रतिबिम्ब । प्रतिबिम्ब का निमित्त तो बिम्ब है, पर उपादान तो दर्पण ही है; क्योंकि दर्पण में जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब दर्पण की अवस्थाएँ हैं। ___ इसीप्रकार ज्ञेय पदार्थों का जो भी स्वरूप है, वह तो उनका स्वयं का ही है; परन्तु ज्ञान दर्पण में जानने में आनेवाला ज्ञेयों का प्रतिबिम्ब ज्ञान की रचना है। यद्यपि उनका (प्रतिबिम्ब रूप ज्ञेयाकारों का) ज्ञेयरूप निमित्त ज्ञेय पदार्थ ही हैं, तथापि उन ज्ञेयाकाररूप ज्ञेयों को जाननेवाली उन ज्ञानाकाररूप ज्ञान पर्यायों का उपादान तो ज्ञान ही है, आत्मा ही है।
इसप्रकार वे ज्ञेयाकार वास्तव में तो ज्ञानाकाररूप ज्ञान ही हैं, आत्मा ही हैं। सम्पूर्ण विश्लेषण का सार यही है कि यद्यपि निश्चय से आत्मा अपने में ही रहता है;