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________________ ४९० प्रवचनसार रागः प्रशस्तभूतो वस्तुविशेषेण फलति विपरीतम् । नानाभूमिगतानीह बीजानीव सस्यकाले ॥२५५।। छद्मस्थविहितवस्तुषु व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः। न लभते अपुनर्भावं भावं सातात्मकं लभते ।।२५६।। अविदितपरमार्थेषु च विषयकषायाधिकेषु पुरुषेषु। जुष्टं कृतं वा दत्तं फलति कुदेवेषु मनुजेषु ।।२५७।। यथैकेषामपि बीजानांभूमिवैपरीत्यान्निष्पत्तिवैपरीत्यं, तथैकस्यापि प्रशस्तरागलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्रवैपरीत्यात्फलवैपरीत्यं कारणविशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यंभावित्वात्।।२५५॥ (हरिगीत) एकविध का बीज विध-विध भूमि के संयोग से। विपरीत फल शुभभाव दे बस पात्र के संयोग से ||२५५|| अज्ञानियों से मान्य व्रत-तप देव-गुरु-धर्मादि में। रत जीव बाँधे पुण्यहीनरु मोक्ष पद को ना लहें।।२५६|| जाना नहीं परमार्थ अर रत रहें विषय-कषाय में। उपकार सेवा दान दें तो जाय कुनर-कुदेव में||२५७।। जिसप्रकार इस जगत में अनेकप्रकार की भूमियों में पड़े हुए एक से बीज धान्यकाल में विपरीतरूप से फलते हैं; उसीप्रकार प्रशस्तराग वस्तुभेद (पात्रभेद) से विपरीतरूप से फलता है। जो छास्थविहित वस्तुओं में अर्थात् छद्मस्थ के द्वारा कथित देव-शास्त्र-गुरु-धर्मादि में एवं व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान और दान में रत होता है; वह जीव मोक्ष को प्राप्त नहीं होता; किन्तु सातात्मक (लौकिक सुखरूप) भाव को प्राप्त होता है। जिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है और जो विषय-कषाय में अधिक है; ऐसे पुरुषों की सेवा उपकार या दान कुदेवरूप में और कुमनुष्यरूप में फलते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जिसप्रकार एक समान बीज होने पर भीभूमि की विपरीतता से निष्पत्ति की विपरीतता होती है; उसीप्रकार प्रशस्त रागरूपशुभोपयोग एक समान होने पर भी पात्र की विपरीततासे फल की विपरीतता होती है क्योंकि कारण के भेद से कार्य काभेद अवश्यम्भावी है। सर्वज्ञकथित वस्तुओं में युक्त शुभोपयोग का फल पुण्य संचयपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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