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प्रवचनसार
अथ प्रवृत्तेविषयविभागं दर्शयति -
जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं । अणुकंपयोवयारं कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो।।२५१।।
जैनानां निरपेक्षं साकारानाकारचर्यायुक्तानाम् ।
अनुकम्पयोपकारं करोतु लेपो यद्यप्यल्पः ।।२५१।। या किलानुकम्पापूर्विका परोपकारलक्षणा प्रवृत्तिः सा खल्वेकान्तमैत्रीपवित्रितचित्तेषु
यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि यहाँ श्रावकों को छह काय के जीवों का विराधक बताया गया है। क्या यह उचित है ?
अरे भाई ! इसमें उचित-अनुचित की क्या बात है ? यहाँ तो यह कहा गया है कि जिन श्रावकों के द्वारा अपनी आजीविका आदि में भूमिकानुसार होनेवाले आरंभ-परिग्रह में, जिससे बचना संभव नहीं है - त्रस-स्थावर जीवों की जैसी विराधना होती है; उन श्रावकों के द्वारा श्रमणों की वैयावृत्ति में भी उसप्रकार की विराधना हो तो हो; पर श्रमणों के जीवन में तो - ऐसी विराधना होनी ही नहीं चाहिए। श्रावकों को त्रस-स्थावर जीवों की विराधना करना चाहिए - ऐसी कोई बात यहाँ नहीं है।
भूमिकानुसार होनेवाली स-स्थावर जीवों की विराधना भी यदि श्रावक स्वयं के उपचार के लिए करे तो तत्संबंधी भाव अशुभभाव हैं और सन्तों के उपचार के लिए करे तो तत्संबंधी भाव शुभभाव हैं। ध्यान रहे यहाँ प्रस-स्थावर जीवों की विराधना करने की बात नहीं है; अपितु श्रावक अवस्था में भूमिकानुसार होनेवाली हिंसा की बात है।।२५०||
विगत गाथा में 'मुनिराजों द्वारा की जानेवाली वैयावृत्ति पूर्णत: अहिंसक होती है' - यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में शुभोपयोगी मुनिराजों द्वारा की जानेवाली प्रवृत्ति के विषय को दो भागों में विभाजित करते हैं -
(हरिगीत) दया से सेवा सदा जो श्रमण-श्रावकजनों की।
करे वह भी अल्पलेपी कहा है जिनमार्ग में||२५१|| यद्यपि अल्पलेप होता है; तथापि साकार-अनाकार जैनों का अथवा श्रावक और मुनिराजों का अनुकम्पा से निरपेक्षतया उपकार करो। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं"यद्यपि अनुकम्पापूर्वक परोपकाररूप प्रवृत्ति करने से भी अल्पलेप होता है; तथापि