SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८२ प्रवचनसार चातुर्वर्णस्य श्रमणसंघस्योपकारकरणवृत्तिः सा सर्वापि रागप्रधानत्वात् शुभोपयोगिनामेव भवति, न कदाचिदपिशुद्धोपयोगिनाम् ।।२४९।। रक्षण में निमित्तभूत, चार प्रकार के श्रमणसंघ का उपकार करने की प्रवृत्ति भी राग की प्रधानता के कारण शुभोपयोगियों के ही होती है; शुद्धोपयोगियों के कदापि नहीं।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का भाव प्रस्तुत करते हुए एक प्रश्न उपस्थित करते हैं कि “शुभोपयोगियों के भी किसी समय शुद्धोपयोग रूप भावना दिखाई देती है और शुद्धोपयोगियों के भी किसी समय शुभोपयोगरूपभावना देखी जाती है; श्रावकों के भी सामायिक आदि के समय शुद्धभावना देखी जाती है। ऐसी स्थिति में शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगियों में भेद करना कैसे संभव है ?'' ___ उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि “आपका कहना ठीक ही है; परन्तु जो अधिकतर शुभोपयोगरूप आचरण करते हैं, यद्यपि वे किसी समय शुद्धोपयोगरूप भावना करते हैं; तथापि वे शुभोपयोगी ही कहलाते हैं तथा जो शुद्धोपयोगी हैं, वे भी किसी समय शुभोपयोगरूपवर्तते हैं; तो भीवे शुद्धोपयोगी ही हैं। जिसप्रकार जिस वन में आम्र के पेड़ अधिक हों, उस वन में कुछ नीम के भी पेड़ क्यों न हों, पर उसे आम्रवन ही कहते हैं । इसीप्रकार यहाँशुद्धोपयोगी और शुभोपयोगियों के संदर्भ में भी समझना चाहिए।" ___एक अपेक्षा यह भी तो हो सकती है कि अनन्तानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी के अभाव से होनेवाली शुद्धपरिणति सम्पन्न मुनिराज शुद्धोपयोग के काल में शुद्धोपयोगी हैं और शुभोपयोग के काल में शुभोपयोगी हैं। इसप्रकार छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले भावलिंगी संत शुद्धोपयोगी भी हैं और शुभोपयोगी भी हैं। श्रेणी का आरोहण करनेवाले सभी मुनिराज शुद्धोपयोगी ही हैं। साधु शब्द के पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के विशिष्ट अर्थों को भी आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि “अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी मुनि हैं, ऋद्धिप्राप्त साधुऋषि हैं। क्षपकश्रेणी और उपशमश्रेणी - दोनों श्रेणियों में आरूढ साधु यति हैं और अन्य सभी साधु अनगार हैं। ऋषि चार प्रकार के होते हैं - राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि और परमर्षि । विक्रिया और अक्षीण ऋद्धि को प्राप्त साधुराजर्षि है, बुद्धि और औषधि ऋद्धि सहित साधु ब्रह्मर्षि हैं, आकाशगमन ऋद्धि सम्पन्न साधु देवर्षि हैं तथा केवलज्ञानी परमर्षि हैं। इन सभी के सुख-दुख आदि विषयों में समताभाव होने से सभी श्रमण हैं।"
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy