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________________ ४६३ चरणानुयोगसूचकचूलिका : मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार किंच - सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदैकज्ञानाकारमात्मानं श्रद्दधानोऽप्यनुभवन्नपि, यदि स्वस्मिन्नेव संयम्य न वर्तयति तदानादिमोहरागद्वेषवासनोपजनितपरद्रव्यचङ्क्रमणस्वैरिण्याश्चिद्वृत्तेः स्वस्मिन्नेव स्थानान्निवसिननिःकम्पैकतत्त्वमूर्च्छितचिवृत्त्यभावात्कथं नाम संयत: स्यात् । असंयतस्य च यथोदितात्मतत्त्वप्रतीतिरूपं श्रद्धानं यथोदितात्मतत्त्वानुभूतिरूपं ज्ञानं वा किं कुर्यात् । तत: संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः। अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयोगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतैव ।।२३७।। दूसरी बात यह है कि सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञेयाकारों से मिलित विशद एक ज्ञानाकार आत्मा का श्रद्धान करता हुआ भी, आत्मा का अनुभव करता हुआ भी यदि कोई व्यक्ति अपने में ही संयमित होकर नहीं रहता; तो अनादिमोह-राग-द्वेष की वासना जनित परद्रव्य में भ्रमण करती स्वेच्छाचारी चित्तवृत्तिवाला वह जीव, वासनारहित स्व में ही रत एक निष्कंप तत्त्व में लीन चित्तवृत्ति का अभाव होने से संयत कैसे हो सकता है ? इसप्रकार के असंयत व्यक्ति का, आत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान और आत्मा की अनुभूतिरूप ज्ञान क्या कर सकता है ? इससे यह सुनिश्चित होता है कि संयमशून्य ज्ञान-श्रद्धान से भी सिद्धि नहीं होती। इसप्रकार आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयम के युगपदपने का अभाव होने पर मोक्षमार्ग घटित नहीं होता।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को दीपक के उदाहरण से इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “कुएं में गिरने से बचनाही हितकर है' - इसप्रकार की श्रद्धा से रहित व्यक्ति का दीपक क्या कर सकता है ? उसीप्रकार आगम से आत्मा के स्वरूप को जानता हुआ व्यक्ति भीयदि 'एक मात्र मेरा आत्मा ही मेरे लिए उपादेय है' - ऐसे श्रद्धान से रहित हो, तो आगम उसका क्या कर सकता है ? __ दूसरी बात यह है कि वही दीपक सहित पुरुष अपने पौरुष के बल से कुएं में गिरने से बचता नहीं है तो उसका श्रद्धान, दीपक व नेत्र (दृष्टि) क्या कर सकते हैं ? उसीप्रकार यह ज्ञान-श्रद्धान सहित जीव भी स्वरूपस्थिरता के बल सेरागादि विकल्प रूप असंयम से निवृत्त नहीं होता है तो उसके ज्ञान और श्रद्धान क्या कर सकते हैं ? इससे यह सिद्ध होता है कि परमागम के ज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान और संयतत्व में से दोया एक से मोक्ष नहीं होता, अपित तीनों की एकतासे ही होता है।" इस गाथा का अभिप्राय मात्र यह है कि न तो आगम से पदार्थों के ज्ञान-श्रद्धान बिना मुक्ति
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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