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चरणानुयोगसूचकचूलिका : मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार
आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि ।
देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खु॥२३४।। “गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा और १४ मार्गणायें तथा उपयोग - ये क्रम से बीस प्ररूपणायें कही गई हैं। जो व्यक्ति उक्त गाथा में कहे गये आगम को नहीं जानता और इसीप्रकार जिसके द्वारा अपने शरीर से भिन्न अपना परमार्थ, परमपदार्थ भगवान आत्मा नहीं जाना गया; वह अंधा व्यक्ति दूसरे अंधों को क्या मार्ग दिखायेगा?
इसप्रकार जो पुरुष दोहापाहुड में कहे गये आगमपद के सारभूत अध्यात्मशास्त्र को नहीं जानता; वह पुरुष.............कर्मों का क्षय नहीं कर सकता। इसकारण मोक्षार्थियों को परमागम का अभ्यास अवश्य करना चाहिए।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि आचार्य जयसेन इस गाथा की टीका में भी आगम के साथसाथ अध्यात्म के प्रतिपादक परमागम के अभ्यास की अनिवार्यता सिद्ध करते हैं। __ सब कुछ मिलाकर इस गाथा और उसकी टीकाओं में एक ही बात कही गई है कि जिस श्रमण को आगम और परमागम का ज्ञान नहीं है; वह श्रमण न तो सही रूप में स्वयं को ही जानता है और न पर को ही पहिचानता है। इसप्रकार स्व को और पर को जाने बिनापहिचाने बिना अर्थात् दोनों के बीच भेदज्ञान किये बिना कर्मों का नाश कैसे हो सकता है? तात्पर्य यह है कि कर्मों के नाश के लिए स्व और पर के बीच की सीमा रेखा जानना अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि इस सीमा रेखा को जाने बिना स्व का ग्रहण और पर का त्याग कैसे संभव है? __कर्मों का नाश कर मुक्ति को प्राप्त करने के लिए आत्मज्ञान और स्व और पर के बीच में भेदविज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है; इसलिए आत्मज्ञान और भेदविज्ञान के लिए आत्मार्थियों को आगम और परमागम का अभ्यास अवश्य करना चाहिए ।।२३३ ।।
विगत गाथा में उक्त तथ्य को प्रस्तुत करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह कहने जा रहे हैं कि सर्वतो चक्षु (सिद्ध भगवान) बनने के लिए आगमचक्षु होना अनिवार्य है।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - १. गुणजीवा पज्जत्ती पाणा सण्णाय मग्गणाओ य ।
उवओगोविय कमसोवीसंतु परूवणा भणिदा।। - गोम्मटसार : जीवकाण्ड, गाथा २ २.भिण्णउ जेण ण जाणियउ णियदेहहं परमत्थु।
सो अंधउ अवरहं अंधयह किम दरिसावइ पंथु ।। - दोहापाहुड, गाथा १२८