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प्रवचनसार
जिनके न तो मिथ्यात्व व कषायों का अभाव है और न आगमानुसार आचरण ही है; वे न तो द्रव्यलिंगी हैं, न भावलिंगी । उन्हें द्रव्यलिंगी कहना द्रव्यलिंग का अपमान है।
अथैतदुभयलिंगमादायैतदेतत्कृत्वा च श्रमणो भवतीति भवतिक्रियायां बन्धुवर्गप्रच्छनक्रियादिशेषसकलक्रियाणां चैककर्तृकत्वमुद्योतयन्नियता श्रामण्यप्रतिपत्तिर्भवतीत्युपदिशतिआदाय तं पि लिंगं गुरुणा परमेण तं णमंसित्ता । सोच्चा सवदं किरियं उवट्ठिदो होदि सो समणो ।। २०७ ।। आदाय तदपि लिंगं गुरुणा परमेण तं नमस्कृत्य ।
श्रुत्वा सव्रतां क्रियामुपस्थितो भवति स श्रमणः ।। २०७ ।। ततोऽपि श्रमणो भवितुमिच्छन् लिंगद्वैतमादत्ते, गुरुं नमस्यति, व्रतक्रिये शृणोति, अथोपतिष्ठते, उपस्थितश्च पर्याप्तश्रामण्यसामग्रीकः श्रमणो भवति ।
आचार्य कुन्दकुन्द भावपाहुड में धर्मविहीन श्रमणों को नटश्रमण कहते हैं और उनके भेष को गन्ने के फूल के समान बताया है, जिन पर न तो फल ही लगते हैं और न जिनमें गंध ही होती है।
अरे भाई ! यह बात शास्त्राधार से गहराई से समझने की है, इसमें किसी भी प्रकार का हठ ठीक नहीं है। यह विषय अत्यन्त संवेदनशील विषय है; अतः इसके प्रतिपादन में विशेष सावधानी रखना अत्यन्त आवश्यक है ।। २०५- २०६ ।।
विगत गाथाओं में द्रव्यलिंग और भावलिंग का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह बताते हैं कि दीक्षार्थी गुरुमुख से द्रव्यलिंग और भावलिंगरूप मुनिधर्म का स्वरूप सुनकर, समझकर; उन्हें विनयपूर्वक नमस्कार करके मुनिधर्म अंगीकार करता है ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत )
जो परमगुरु नम लिंग दोनों प्राप्त कर व्रत आचरें ।
आत्मथित वे श्रमण ही बस यथायोग्य क्रिया करें ॥२०७॥
परमगुरु के द्वारा प्रदत्त उन दोनों लिंगों को धारण करके, उन्हें नमस्कार करके, व्रत सहित क्रिया को सुनकर, उपस्थित होता हुआ अर्थात् आत्मा के समीप स्थित होता हुआ श्रमण होता है। उक्त गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
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"इसके बाद श्रमण होने का इच्छुक दीक्षार्थी दोनों लिंगों को धारण करता है, गुरु को समक्काहु कस्ता सैबथा क्रिया को सुनता है और उपस्थित होता है । उपस्थित होता हुआ
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