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प्रवचनसार
३८६ शीघ्रता से एकसमय में ज्ञेयरूप करता हुआ, भेदों को प्राप्त ज्ञेयों को ज्ञानरूप करता हुआ और ज्ञान को आत्मारूप करता हुआ दैदीप्यमान हो रहा है।
उक्त छन्दों में आचार्य अमृतचन्द्रदेव कह रहे हैं कि मैं इस जिनप्रवचन के सारभूत प्रवचनसाररूप जिनवाणी में अवगाहन करके ज्ञेयतत्त्व को भलीभाँति समझकर निजात्मरमणतारूप परिणमित हो रहा हैं। इसप्रकार मेरा यह आत्मा परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर, सम्पूर्ण विश्व को ज्ञेय रूप करता हुआ, भेदों को प्राप्त ज्ञेयों को ज्ञानरूप करता हुआ, ज्ञान को आत्मरूप करता हुआ शोभायमान है।।१०-११।। इस महाधिकार के अन्त में आने वाले ३ छन्दों में से अन्तिम छन्द इसप्रकार है
(दोहा) चरण द्रव्य अनुसार हो द्रव्य चरण अनुसार।
शिवपथगामी बनो तुम दोनों के अनुसार ||१२|| चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुसार होता है - इसप्रकार वे दोनों परस्पर सापेक्ष हैं; इसलिए या तो द्रव्य का आश्रय लेकर अथवा तो चरण का आश्रय लेकर मुमुक्षु अर्थात् ज्ञानी श्रावक और मुनिराज मोक्षमार्ग में आरोहण करो।
यहाँ आचार्य अमृतचन्द्रदेव इसप्रकार समापन करते हैं कि मानो ग्रन्थ ही समाप्त हो गया हो। ऐसा लगता है कि वे ज्ञानतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व का प्रतिपादन ही इस ग्रन्थ का मूल प्रतिपाद्य मानते हैं। यही कारण है कि वे आगामी प्रकरण को चूलिका कहते हैं। उसे वे ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन और ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन के समान महाधिकार नहीं देना चाहते।
ज्ञान और ज्ञेयपना आत्मा का मूलस्वभाव है। वह आत्मा ज्ञानस्वरूप भी है और ज्ञेयरूप भी है; उसमें ज्ञान नामक गुण भी है और प्रमेयत्व नामक गुण भी है।
आत्मा को समझने के लिए आत्मा के ज्ञानस्वभाव को भी जानना चाहिए और उसके ज्ञेयस्वभाव को भी जानना चाहिए। आत्मा के ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयस्वभाव को जाने बिना आत्मा को सही रूप में समझना संभव नहीं है। अतः उक्त दोनों महाधिकारों में इसकी विस्तार से चर्चा की गई।
इन अधिकारों के परिज्ञानपूर्वक आत्मा के ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयस्वभाव को जानकर ज्ञान-ज्ञेयस्वभावी आत्मा में आचरण करने, रमण करने के लिए अन्त में चरणानुयोग सूचक