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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
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ममता न छोड़े वह श्रमण उनमार्गी जिनवर कहें।।१९०|| पर का नहीं ना मेरे पर मैं एक ही ज्ञानात्मा।
जो ध्यान में इस भाँति ध्यावे है वही शद्धात्मा ||१९१|| जो देह-धनादिक में 'मैं यह हूँ और यह मेरा है' - ऐसे ममत्व को नहीं छोड़ता; वह श्रामण्य को छोड़कर उन्मार्ग का आश्रय लेता है।
'मैं पर का नहीं हूँ और पर मेरे नहीं हैं; मैं तो एक ज्ञान हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ'- इसप्रकार जो ध्यान करता है; वह ध्याता ध्यानकाल में आत्मा होता है।
आ.अमृतचंद्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक निश्चयनय से निरपेक्ष रहकर अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक व्यवहारनय में मोहित जो आत्मा मैं यह हूँ और यह मेरा है' - इसप्रकार आत्मीयता से देह
और धनादिक परद्रव्यों में ममत्व नहीं छोड़ता; वह आत्मा शुद्धात्मपरिणतिरूप श्रामण्य नामक मार्ग को दूर से ही छोड़कर अशुद्धात्मपरिणतिरूप उन्मार्ग का ही आश्रय लेता है।
इससे निश्चित होता है कि अशुद्धनय से अशुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है।
यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयाविरोधमध्यस्थः, शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयापहस्तिमोहः सन्, नाहं परेषामस्मि, न परे मे सन्तीति स्वपरयो: परस्परस्वस्वामिसंबंधमुद्धय, शुद्धज्ञानमेवैकमहमित्यनात्मानमुत्सृज्यात्मानमेवात्मत्वेनोपादाय परद्रव्यव्यावृत्तत्वादात्मन्येवैकस्मिन्नगे चिन्तां निरुणद्धि, स खल्वेकाग्रचिन्तानिरोधकस्तस्मिन्नैकाग्रचिन्तानिरोधसमये शुद्धात्मा स्यात् ।
अतोऽवधार्यते शुद्धनयादेव शुद्धात्मलाभः ।।१९१।।
मात्र अपने विषय में प्रवर्तमान अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक व्यवहारनय में अविरोधरूप से मध्यस्थ रहकर शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक निश्चयनय के द्वारा मोह दूर किया है जिसने, ऐसा वह आत्मा 'मैं पर का नहीं हैं, पर मेरे नहीं हैं' - इसप्रकार स्व-पर के परस्पर स्व-स्वामी संबंध को छोड़कर मैं एक शुद्ध ज्ञान ही हूँ' - इसप्रकार अनात्मा को छोड़कर आत्मा को ही आत्मरूप से ग्रहण करके परद्रव्य से भिन्नत्व के कारण एक आत्मा में ही चिन्तवन को रोकता है; वह एकाग्रचिन्तानिरोधक आत्मा उस एकाग्रचित्तानिरोध के समय वास्तव में शुद्धात्मा होता है। इससे निश्चित होता है कि शुद्धनय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि जो व्यक्ति रुपया-पैसा, धन-धान्य, मकान, देश, नगर, गाँव आदि में एकत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि नहीं छोड़ता है; वह श्रामण्य (मुनिपना) को छोड़कर उन्मार्ग का आश्रय लेता हुआ उन्मार्गी हो जाता है और