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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
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यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का अर्थ आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही करते हैं; तथापि अन्त में एक प्रश्न उठाकर उसका समाधान इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
“यहाँ प्रश्न है कि आत्मारागादि को करता-भोगता है - ऐसे लक्षणवाला निश्चयनय कहा, वह उपादेय कैसे हो सकता है ?
इसके उत्तर में कहते हैं कि आत्मा रागादि को ही करता है; द्रव्यकर्म को नहीं करता। रागादि ही बंध के कारण हैं; जब जीव ऐसा जानता है, तब राग-द्वेष आदि विकल्पजाल को छोड़कर रागादि के विनाश के लिए निज शद्धात्मा की भावना करता है। इससे रागादि का विनाश होता है और रागादि का विनाश होने पर आत्मा शुद्ध होता है; इसलिए परम्परा से शुद्धात्मा का साधक होने के कारण यह अशुद्धनय भी उपचार से शुद्धनय कहलाता है, निश्चयनय कहलाता है और इसी कारण उपादेय कहा जाता है - ऐसा अभिप्राय है।"
एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि यहाँ शुद्धता का अर्थ परद्रव्यों से भिन्नता और अशुद्धता का अर्थ परद्रव्यों से अभिन्नता है। यही कारण है कि यहाँ आत्मा को रागादि भावों का कर्ता शुद्धनिश्चयनय से कहा गया है; जबकि अन्यत्र लगभग सर्वत्र ही आत्मा को रागादि का कर्ता अशुद्धनिश्चयनय से कहा जाता रहा है।
आचार्य जयसेन का ध्यान भी इस ओर गया था। यही कारण है कि उन्होंने यह कहकर समाधान करने का सफल प्रयास किया है कि परम्परा से शुद्धात्मा का साधक होने से यह अशुद्धनय भी उपचार से शुद्धनय कहलाता है और इसीकारण उपादेय भी कहा जाता है।
आचार्य जयसेन के उक्त कथन में समागत ‘परम्परा से शुद्धात्मा का साधक और अशुद्धनय भी उपचार से शुद्धनय कहलाता है और इसीकारण उपादेय है' - ये वाक्य ध्यान देने योग्य हैं; क्योंकि इनमें अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि आत्मा को रागादि का कर्ता कहनेवाला नय मूलत: तो अशुद्धनिश्चयनय ही है; पर उसे यहाँ प्रयोजनवश उपचार से शुद्धनिश्चयनय कह दिया गया है। इसीप्रकार यहाँ इसे परम्परा से ही शुद्धात्मा का साधक कहा गया है; साक्षात् साधक नहीं कहा।
यहाँ आत्मा रागादिरूप है, रागादि का स्वामी है और रागादि का कर्ता-भोक्ता हैं' - यह शुद्धनिश्चयनय का कथन है। यह कहकर यह कहना चाहते हैं कि आत्मा स्वयं रागादिरूप परिणमता है, रागादि के स्वामीपने परिणमता है और रागादि के कर्तृत्वभोक्तृत्वरूप परिणमता है। यह सब आत्मा की पर्यायगत योग्यता के कारण स्वयं से ही