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________________ ३४८ प्रवचनसार इसीप्रकार यद्यपि आत्मा के जानने में आनेवाले कर्मपुद्गलों के साथ आत्मा का पारमार्थिक संबंध नहीं है; तथापि एक क्षेत्रावगाह रहनेवाले कर्मपुद्गल जिसके निमित्त हैं ऐसे उपयोग में आनेवाले राग-द्वेष भावों के साथ का संबंध कर्मपुद्गलों के साथ के बंधरूप व्यवहार को बताता अवश्य है। तात्पर्य यह है कि परस्पर अत्यन्त भिन्न-भिन्न द्रव्यों में जिस प्रकार व्यवहार से ज्ञेयज्ञायक संबंध पाया जाता है; उसीप्रकार उनमें व्यवहार से बंध-बंधक भाव भी पाया जाता है ।। १७३ - १७४॥ इसप्रकार विगत गाथाओं में जीव और पौद्गलिक कर्मों के बंधन का स्वरूप सोदाहरण स्पष्ट करके अब भावबंध और द्रव्यबंध का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार हैअथ भावबन्धस्वरूपं ज्ञापयति । अथ भावबन्धयुक्तिं द्रव्यबन्धस्वरूपं प्रज्ञापयति - उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि । पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं सो बन्धो । । १७५ ।। भावेण जेण जीवो पेच्छदि जाणादि आगदं विसये । रज्जदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो । । १७६ ।। उपयोगमयो जीवो मुह्यति रज्यति वा प्रद्वेष्टि । प्राप्य विविधान् विषयान् यो हि पुनस्तैः स बन्धः । । १७५ ।। भावेन येन जीवः पश्यति जानात्यागतं विषये । ज्य तेनैव पुनर्बध्यते कर्मेत्युपदेशः।।१७६।। अयमात्मा सर्व एव तावत्सविकल्पनिर्विकल्पपरिच्छेदात्मकत्वादुपयोगमयः । तत्र यो हि नाम नानाकारान् परिच्छेद्यानर्थानासाद्य मोहं वा रागं वा द्वेषं वा समुपैति स नाम तै: परप्रत्ययैरपि मोहरागद्वेषैरुपरक्तात्मस्वभावत्वान्नीलपीतरक्तोपाश्रयप्रत्ययनीलपीतरक्तत्वैरुपरक्तस्वभावः स्फटिकमणिरिव स्वयमेक एव तद्भावद्वितीयत्वाद्बन्धो भवति । । १७५ । । ( हरिगीत ) प्राप्त कर उपयोगमय जिय विषय विविध प्रकार के । रुष-तुष्ट होकर मुग्ध होकर विविधविध बंधन करे ।। १७५ ॥ जिस भाव से आगत विषय को देखे-जाने जीव यह । उसी से अनुरक्त हो जिय विविधविध बंधन करे || १७६ || उपयोगमयी जो जीव विविध विषयों को प्राप्त करके मोह करता है, राग करता है और द्वेष करता है; वह जीव उन मोह-राग-द्वेष के द्वारा संबंधरूप होता है, बंधन को प्राप्त होता है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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