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प्रवचनसार
आत्मा न तो लौकिक साधनमात्र है और न पाखण्डियों के प्रसिद्ध साधनरूप आकारवाला है, लोकव्याप्तिवाला है।
लिंग अर्थात् मेहनाकार का ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है। पुरुष की गुप्तेन्द्रिय (लिंग-जननेन्द्रिय) को मेहन कहते हैं और उसके आकार के समान है आकार जिसका, उसे मेहनाकार कहते हैं। ऐसा मेहनाकार जिसके नहीं है, वह आत्मा अलिंगग्रहण है। पुत्रादि की उत्पत्ति के साधन को लौकिक साधन कहते हैं। जिसप्रकार मेहनाकार अर्थात् लिंगाकार पुत्रादि की उत्पत्ति का साधनमात्र है; उसप्रकार लौकिक साधनमात्र आत्मा नहीं है।
देखो, ध्यान से देखने की बात यह है कि यहाँ लिंग का अर्थ मेहनाकार और अमेहनाकार - दोनों किया है। पुरुष की गुप्तेन्द्रिय के आकार को मेहनाकार कहते हैं और लोकव्यापी आकार को अमेहनाकार कहते हैं। यह भगवान आत्मा केवली समुद्घात के काल को छोड़कर शेष काल में लोकव्यापी आकारवाला भी नहीं है; क्योंकि संसारावस्था में तो यह प्राप्त देह के आकार में रहता है और सिद्धावस्था में किंचित्न्यून अन्तिम देहाकार रहता है। इसप्रकार यह आत्मा अमेहनाकार भी नहीं है।
इसप्रकार मेहनाकार नहीं है; इसलिए भी अलिंगग्रहण है और अमेहनाकार नहीं है; इसलिए भी अलिंगग्रहण है।
१६. इस सोलहवें बोल का सीधा-सादा अर्थ यह है कि यह भगवान आत्मा द्रव्य और भाव से न तो स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है; तीनों लिंगों से रहित है, तीनों लिंगों को ग्रहण नहीं करता; इसलिए अलिंगग्रहण है।
द्रव्यपुरुषादि को आत्मा मानना जड़ को आत्मा मानना है और भावपुरुषादि को आत्मा मानना पापतत्त्व को, आस्रवतत्त्व को आत्मा (जीवतत्त्व) मानना है।
१७. धर्मचिन्हों को भी लिंग कहते हैं। जैसे मुनिलिंग, ग्रहस्थलिंगादि । जिस आत्मा के इन धर्मचिन्हों अर्थात् लिंगों का अभाव है, वह आत्मा अलिंगग्रहण है। इसप्रकार इस आत्मा के बहिरंग यतिलिंग का अभाव है; इसकारण अलिंगग्रहण है।
लिंग शब्द के लोक में प्रसिद्ध अर्थ दो हैं - १. वेद और २. भेष | स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसकलिंग - ये तीन लिंग वेद हैं और मुनिभेष आदि भेष हैं। १६वें बोल में वेदरूप लिंगों की बात है और १७वें बोल में धर्मचिन्ह संबंधी भेष की बात है। इन दोनों के द्वारा भी आत्मा का ग्रहण नहीं होता; अत: वह दोनों अपेक्षा अलिंगग्रहण है।
अलिंगग्रहण संबंधी उक्त सम्पूर्ण प्रकरण में गुण, पर्याय और द्रव्यसंबंधी १८वाँ, १९वाँ