SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार ३१५ उक्त गाथा और उसकी टीकाओं में अत्यन्त संक्षेप में यह कहा गया है कि ज्ञान-दर्शन को उपयोग कहते हैं और वह उपयोग आत्मा का स्वरूप है। यदि चारित्र की अपेक्षा बात करें तो वह उपयोग शुद्धोपयोग और अशुद्धोपयोग के भेद से दो प्रकार का है। अथ शुभोपयोगस्वरूपं प्ररूपयति । अथाशुभोपयोगस्वरूपं प्ररूपयति जो जाणादि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे । जीवेसु साणुकंपा उवओगो सो सुहो तस्स ।। १५७ ।। विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्टगोट्ठिजुदो । उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो । । १५८ । । - यो जानाति जिनेन्द्रान् पश्यति सिद्धांस्तथैवानागारान् । जीवेषु सानुकम्प उपयोगः स शुभस्तस्य । । १५७।। विषयकयाषावगाढो दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठियुतः । उग्र उन्मार्गपर उपयोगो यस्य सोऽशुभः ।। १५८ । । विशिष्टक्षयोपशमदशाविश्रान्तदर्शनचारित्रमोहनीयपुद्गलानुवृत्तिपरत्वेन परिग्रहीत अशुद्धोपयोग भी दो प्रकार का होता है - शुभोपयोग और अशुभोपयोग । शुभोपयोग से बंध होता है और अशुभोपयोग से पाप बंधता है - इसप्रकार अशुद्धोपयोग बंध का कारण है और शुद्धोपयोग बंध के अभाव का कारण है, मोक्ष का कारण है ।। १५७-१५८।। विगत गाथाओं में उपयोग के भेद बताकर उनके स्वरूप को स्पष्ट कर अब इन गाथाओं में शुभ और अशुभ उपयोग का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है( हरिगीत ) - श्रद्धान सिध- अणगार का अर जानना जिनदेव को । जीवकरुणा पालना बस यही है उपयोग शुभ || १५७ || अशुभ है उपयोग वह जो रहे नित उन्मार्ग में । श्रवण-चिंतन - संगति विपरीत विषय - कषाय में ।। १५८ ॥ जो जिनेन्द्रों को जानता है, सिद्धों और अनगारों की श्रद्धा करता है तथा जीवों के प्रति दयाभाव रखता है; उसका वह उपयोग शुभ कहलाता है । जिसका उपयोग विषय-कषाय में मग्न है; कुश्रुत, कुविचार और कुसंगति में लगा है तथा
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy