________________
ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
३१३
तथा पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करनेवाले अचेतनत्वरूप ध्रौव्य और अचेतनत्व के उत्तर तथा पूर्व के व्यतिरेकरूप उत्पाद और व्यय - यह त्रयात्मक स्वरूपास्तित्व स्वभावी अन्य अचेतन पदार्थ अन्य हैं। इसलिए मुझे मोह नहीं है, स्वपर का विभाग है।"
अथात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय परद्रव्यसंयोगकारणस्वरूपमालोचयति । अथात्र क उपयोग: परद्रव्यसंयोगकारणमित्यावेदयति -
अप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणदंसणं भणिदो। सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि।।१५५।। उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि। असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि ।।१५६।।
आत्मा उपयोगात्मा उपयोगो ज्ञानदर्शनं भणितः। सोऽपि शुभोऽशुभो वा उपयोग आत्मनो भवति ।।१५५।। उपयोगो यदि हि शुभः पुण्यं जीवस्य संचयं याति।
अशुभो वा तथा पापं तयोरभावे न चयोऽस्ति ।।१५६।। इस गाथा और उसकी टीका में यह बात अत्यन्त स्पष्ट रूप से कही गई है कि प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूपास्तित्व प्रमाण ही है। प्रत्येक वस्तु में पाये जाने वाले द्रव्य, गुण और पर्यायें तथा उत्पाद, व्यय और धौव्य ही उसका स्वरूपास्तित्व है।
मनुष्यादि असमानजातीय द्रव्यपर्याय में जीव का स्वरूपास्तित्व अलग है और देहादि का स्वरूपास्तित्व अलग है। यह जानना ही भेदविज्ञान है और यह भेदविज्ञान निरन्तर भाने योग्य है; क्योंकि देह में जो अनादिकालीन एकत्वबुद्धि है; वह इसके बिना टूटनेवाली नहीं है॥१५४||
'चार प्राणरूप शरीर अन्य है और मैं अन्य हूँ।' विगत गाथा में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि उक्त शरीर के समागम का मूल कारण क्या है ? गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) आतमा उपयोगमय उपयोग दर्शन-ज्ञान हैं। अर शुभ-अशुभ के भेद भी तो कहे हैं उपयोग के ||१५५|| उपयोग हो शुभ पुण्यसंचय अशुभ हो तो पाप का।