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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
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व्यतिरेकमात्र है - ऐसी अस्खलित एकद्रव्यपर्याय ही अनेकद्रव्यों के संयोगात्मक रूप से भीतर अवभासित होती है।
नारकस्तिर्यङ्मनुष्यो देव इति किल पर्याया जीवानाम् । ते खलु नामकर्मपुद्गलविपाककरणत्वेनानेकद्रव्यसंयोगात्मकत्वात् कुकूलाङ्गारादिपर्याया जातवेदसः क्षोदखिल्वसंस्थानादिभिरिव संस्थानादिभिरन्यथैव भूता भवन्ति ॥१५३।। अथात्मनोऽन्यद्रव्यसंकीर्णत्वेऽप्यर्थनिश्चायकमस्तित्वं स्वपरविभावहेतुत्वेनोद्योतयति -
तं सब्भावणिबद्धं दव्वसहावं तिहा समक्खादं। जाणदि जो सवियप्पंण मुहदि सो अण्णदवियम्हि ।।१५४।।
तं सद्भावनिबद्ध द्रव्यस्वभाव त्रिधा समाख्यातम् ।
जानाति यः सविकल्पं न मुह्यति सोऽन्यद्रव्ये ।।१५४।। नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव - ये जीवों की पर्यायें हैं। वे नामकर्मरूप पुदगल के विपाक के कारण अनेक द्रव्यों की संयोगात्मक हैं; इसलिए जिसप्रकार तुष की अग्नि और अंगार आदि अग्नि की पर्यायें चूरा और डली इत्यादि आकारों से अन्य-अन्यप्रकार की होती हैं; उसीप्रकार जीव कीवे नारकादिपर्यायें संस्थानादिक के द्वारा अन्य-अन्य प्रकार की होती
___इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि कम से कम चार और अधिक से अधिक दश प्राणों से संयुक्त जीव की असमानजातीय नर-नारकादि पर्यायें विभिन्न आकारों में होती हैं। जिस गति में जीव जाता है, उसी गति के योग्य आकार हो जाता है। मनुष्य गति का जीव मनुष्याकार तो होता ही है; पर मनुष्य देह के भी तो दिन में अनेक आकार बनते हैं और उसके साथ जीव भी उन्हीं आकारों में परिणमित होता रहता है। ___ इस असमानजातीय मनुष्य पर्याय में आत्मा अलग है और देह अलग है। यद्यपि वे एकक्षेत्रावगाह हैं, तथापि उनकी सत्ता भिन्न-भिन्न है, उनके आकार भी भिन्न-भिन्न है। __ तात्पर्य यह है कि शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं - ऐसा भेदविज्ञान ज्ञानियों को निरन्तर विद्यमान रहता है। यदि हमें अपना कल्याण करना है तो ऐसा भेदविज्ञान निरन्तर कायम रखना चाहिए।।१५२-१५३ ।।
अब इस १५४वीं गाथा में आत्मा का अन्य द्रव्यों के साथ संयुक्तपना होने पर भी अर्थनिश्चायक स्वरूपास्तित्व कोस्व-पर विभाग के हेतरूप में समझाते हैं।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -