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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार
२९९ ऐसा होने पर त्रिलक्षणता नष्ट हो जाती है और बौद्धमत सम्मत क्षणभंग उल्लसित हो उठता है, नित्य द्रव्य अस्त हो जाता है और क्षणध्वंशीभाव उत्पन्न होते हैं; इसलिए तत्त्वविप्लव पर्यायसमयाप्रसिद्धेः । प्रदेशमात्रं हि द्रव्यसमयमतिक्रामत: परमाणो: पर्यायसमय: प्रसिद्धयति । लोकाकाशतुल्यासंख्ययप्रदेशत्वे तु द्रव्यसमयस्य कुतस्त्या तत्सिद्धिः। ___ लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशकद्रव्यत्वेऽपि तस्यैकं प्रदेशमतिक्रामत: परमाणोस्तत्सिद्धिरिति चेन्नैवं, एकदेशवृत्तेः सर्ववृत्तित्वविरोधात् । सर्वस्यापि हि कालपदार्थस्य यः सूक्ष्मो वृत्त्यंश: स समयो, न तु तदेकदेशस्य । तिर्यक्प्रचयस्योर्ध्वप्रचयत्वप्रसंगाच्च।
तथाहि - प्रथममेकेन प्रदेशेन वर्तते, ततोऽन्येन, ततोप्यन्तरेणेति तिर्यकप्रचयोऽप्यूर्ध्वप्रचयीभूय प्रदेशमात्रंद्रव्यमवस्थापयति । ततस्यिोस्तर्यक्प्रचयस्योर्ध्वप्रचयत्वमनिच्छता प्रथममेव प्रदेशमानं कालद्रव्यं व्यवस्थापयितत्वम् ।।१४४।। के भय से अवश्य ही वत्ति का आश्रयभत कोई वत्तिमान खोजना आवश्यक है, स्वीकार करना आवश्यक है। वृत्तिमान द्रव्य सप्रदेशी ही होता है; क्योंकि अप्रदेश के अन्वय तथा व्यतिरेक होना असिद्ध है।
यहाँएक प्रश्न संभव है कि यदिकालद्रव्य सप्रदेशी है तो फिर लोकाकाश के समान ही कालद्रव्य के भी एक द्रव्यत्व के हेतुभूत असंख्य प्रदेश मान लेने में क्या आपत्ति है ?
इसका समाधान यह है कि ऐसा मानने पर पर्याय रूप समय प्रसिद्ध नहीं होता; इसलिए कालद्रव्य के असंख्य प्रदेश मानना योग्य नहीं है। परमाणु के द्वारा मन्दगति से आकाश के एक प्रदेश का उल्लंघन करने के आधार पर कालद्रव्य की समय नामक पर्याय मानी जाती है।
द्रव्यसमय अर्थात् कालपदार्थलोकाकाश के बराबर असंख्यप्रदेशवाला एक द्रव्य होतो भी परमाणु के द्वारा उसका एक प्रदेश उल्लंघित होने पर पर्याय समय की सिद्धि कैसे होगी?
यदि कोई ऐसा कहे कि द्रव्यसमय अर्थात् कालपदार्थ लोकाकाश जितने असंख्य प्रदेशवालाएक द्रव्य होतोभी परमाणु के द्वारा उसका एक प्रदेश उल्लंघित होने पर पर्यायसमय की सिद्धि हो तो क्या आपत्ति है? ऐसा मानने पर निम्नांकित दो आपत्तियाँ आती हैं -
(१) प्रथम तोद्रव्य के एकदेश की परिणति कोसम्पूर्ण द्रव्य की परिणति मानने का प्रसंग आता है और एकदेश कीवृत्तिकोसम्पूर्ण द्रव्य कीवृत्ति मानने में विरोध है। सम्पूर्ण कालपदार्थ का जो सूक्ष्म वृत्यंश है, वह समय है; परन्तु उसके एकदेश का वृत्यंश समय नहीं है।
(२) दूसरे, तिर्यक् प्रचय को ऊर्ध्वप्रचयपने का प्रसंग आता है। तात्पर्य यह है कि ऐसा मानने पर कालद्रव्य एक प्रदेश में वर्ते, फिर दूसरे प्रदेश में वर्ते और फिर अन्य प्रदेश में वर्ते - इसप्रकार का प्रसंग आता है, आपत्ति आती है। इसलिए तिर्यक्प्रचय कोऊर्ध्वप्रचयपनान माननेवालों को पहले सेहीकालद्रव्य को प्रदेशमात्र निश्चित करना चाहिए, माननाचाहिए।"
यद्यपि इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए आचार्य जयसेन तत्त्वप्रदीपिका का