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________________ २९२ प्रवचनसार द्रव्य होने से दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है- ऐसा माना जाय तो यह ठीक ही है। इसप्रकार अविभाग एक द्रव्य में अंशकल्पना फलित हो गई।" अथ तिर्यगूर्ध्वप्रचयावावेदयति - एक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य। दव्वाणं च पदेसा संति हि समय त्ति कालस्स ।।१४१।। एको वा द्वौ बहवः संख्यातीतास्ततोऽनन्ताश्च । द्रव्याणां च प्रदेशाः सन्ति हि समया इति कालस्य ।।१४१।। प्रदेशप्रचयो हि तिर्यक्प्रचयः समयविशिष्टवृत्तिप्रचयस्तदूर्ध्वप्रचयः। तत्राकाशस्यावस्थितानंतप्रदेशत्वाद्धर्माधर्मयोरवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वाज्जीवस्यान आचार्य जयसेन शेष बातें तो आचार्य अमृतचन्द्र के समान ही स्पष्ट करते हैं; पर उदाहरण बदल देते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र तो अंगुलियों का उदाहरण देकर बात को समझाते हैं; पर आचार्य जयसेन दो मुनिराजों के उदाहरण के माध्यम से बात स्पष्ट करते हैं। ___ इसप्रकार इस गाथा में मूलरूप से यही कहा गया है कि अखण्ड आकाश में भी अंशकल्पना हो सकती है, होती है। आकाश का सबसे छोटा अंश प्रदेश कहलाता है। यद्यपि वह क्षेत्र से एक पुद्गल के परमाणु के बराबर होता है; तथापि उसमें अनन्त परमाणुओं का स्कंध और जीवादि द्रव्य भी समा सकते हैं। इसप्रकार आकाशद्रव्य अखण्ड होकर भी अनंतप्रदेशी है और अनंतप्रदेशी होकर भी अखण्ड है।।१४०।।। विगत गाथाओं में समय और प्रदेश के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है और अब इस गाथा में तिर्यक्प्रचय और ऊर्ध्वप्रचय को समझाते हैं। ध्यान रहे तिर्यक्प्रचय में प्रदेशों की अपेक्षा है और ऊर्ध्वप्रचय में समयों की अपेक्षा है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) एक दो या बहुत से परदेश असंख्य अनंत हैं। काल के हैं समय अर अवशेष के परदेश हैं।।१४१|| द्रव्यों के एक, दो, बहत, असंख्य अथवा अनन्त प्रदेश होते हैं और कालद्रव्य के अनंत समय होते हैं। उक्त गाथा के भाव को आ. अमृतचंद्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “प्रदेशों का समूह तिर्यक्प्रचय है और समय विशिष्ट पर्यायों का समूह ऊर्ध्वप्रचय है। आकाश द्रव्य अवस्थित (स्थिर) अनंत प्रदेशी होने से. धर्म व अधर्म द्रव्य अवस्थित
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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