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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार
२८३ तुल्य असंख्य प्रदेशों को नहीं छोड़ता; इसलिए प्रदेशवान है, सप्रदेशी है। __यद्यपि पुद्गल द्रव्यापेक्षा प्रदेशमात्र (एकप्रदेशी) होने से अप्रदेशी है; तथापि दो प्रदेशों धारितप्रदेशत्वात्पुद्गलस्य, सकललोकव्याप्यसंख्येयप्रदेशप्रस्ताररूपत्वात् धर्मस्य, सकललोकव्याप्यसंख्येयप्रदेशप्रस्ताररूपत्वादधर्मस्य, सर्वव्याप्यनन्तप्रदेशप्रस्ताररूपत्वादाकाशस्य च प्रदेशवत्त्वम् । कालाणोस्तु द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वात्पर्यायेण तु परस्परसंपर्कासंभवादप्रदेशत्वमेवास्ति । ततः कालद्रव्यमप्रदेशंशेषद्रव्याणि प्रदेशवन्ति ।।१३५।। सेलेकर संख्यात, असंख्यात और अनंतप्रदेशोंवाली पर्यायोंकी अपेक्षा अनिश्चित प्रदेशवाला होने से प्रदेशवान (सप्रदेशी) है।
सकललोकव्यापीअसंख्यप्रदेशों के विस्ताररूपहोने सेधर्मद्रव्य प्रदेशवान (सप्रदेशी) है। इसीप्रकार सकललोकव्यापी असंख्य प्रदेशों से विस्ताररूपहोने से अधर्मद्रव्य भी प्रदेशवान (सप्रदेशी) है और सर्वव्यापी अनन्त प्रदेशों के विस्ताररूपहोने से आकाश भी प्रदेशवान है। कालाणुद्रव्य तो प्रदेशमात्र होने से और पर्यायों का परस्पर संपर्क न होने से अप्रदेशी ही है।
इसप्रकार कालद्रव्य अप्रदेशी और शेष द्रव्य सप्रदेशी हैं।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा में कोई विशेष बात नहीं है, मात्र इतना ही कहा गया है कि एक जीव के लोकाकाशप्रमाण असंख्यप्रदेश हैं, धर्म और अधर्म द्रव्यों के भी असंख्य प्रदेश ही हैं; पर आकाश के अनन्त प्रदेश हैं - इसप्रकार ये चार द्रव्य सप्रदेशी अर्थात् अस्तिकाय ही हैं। यद्यपि पुद्गल परमाणुद्रव्य एकप्रदेशी ही है, तथापि स्कंध की अपेक्षा उपचार से वह संख्यात, असंख्यात और अनंतप्रदेशी भी कहा गया है। इसकारण सप्रदेशी है; परन्तु कालाणुद्रव्य एकप्रदेशी होने से अप्रदेशी ही है।
इसप्रकार जीवादि पाँच द्रव्य अस्तिकाय और कालाणु नास्तिकाय है।।१३५।।
इस गाथा के उपरान्त आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति टीका में एक गाथा प्राप्त होती है; जो आचार्य अमतचन्द्रकत तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं है। गाथा मलत: इसप्रकार है
एदाणि पंचदव्वाणिउज्झियकालंतु अत्थिकाय त्ति । भण्णंते काया पुण बहुप्पदेसाण पचयत्तं ।।११।।
(हरिगीत ) रे कालद्रव को छोड़कर अवशेष अस्तिकाय हैं।
अर बहुप्रदेशीपना ही है काय जिनवर ने कहा ।।११|| कालद्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं और बहुप्रदेशों के समूह को काय