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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन: द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार
पुद्गल जीवों के जीवन-मरण और सुख-दुख में निमित्त है । जीवों के जीवन-मरण और सुख-दुखरूप कार्य का उपादानकारण अर्थात् कारक आत्मा है और निमित्तकारण अर्थात् उपकारक कर्मोदयरूप पुद्गल हैं।
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प्रश्न- क्या उपकारक कारक नहीं है ?
उत्तर - जिसप्रकार उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति नहीं है; उसीप्रकार उपकारक भी कारक नहीं
है।
प्रश्न - संसार में तो कारक से भी महान उपकारक को माना जाता है?
उत्तर - यदि कोई राष्ट्रपति से भी महान उपराष्ट्रपति को मानना चाहे तो हम क्या कर सकते हैं ? इसीप्रकार यदि कोई स्वद्रव्यरूप उपादानकारण से भी महान परद्रव्यरूप निमित्तकारण को मानना चाहे तो हम क्या कर सकते हैं ? पर, हम यह क्यों भूल जाते हैं कि आचार्य जयसेन तो इसी गाथा की टीका में उपकारक को दुखकारक ही बता रहे हैं ।
उनका उक्त कथन इसप्रकार है - "यहाँ अर्थ यह है कि यद्यपि पाँच द्रव्य जीव का उपकार करते हैं; तथापि वे दुख के ही कारण हैं - ऐसा जानकर अक्षय- अनंत सुखादि के कारणभूत विशुद्ध ज्ञान - दर्शन उपयोगस्वभावी परमात्मद्रव्य का ही मन द्वारा ध्यान करना चाहिए, उसे ही वचनों से बोलना चाहिए और शरीर से उसके ही साधक अनुष्ठान करना चाहिए।"
पुद्गल के जीव के प्रति उपकारों में जिस सुख की चर्चा है, वह सुख इन्द्रियसुख होने से दुख ही है। जैसा कि इसी ग्रन्थ की ७६वीं गाथा में भी कहा है कि
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सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं ।
जं इंदिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ।।७६।। ( हरिगीत )
इन्द्रियसुख सुख नहीं दुख है विषम बाधा सहित है।
बंध का कारण दुखद परतंत्र है विच्छिन्न है ॥७६॥
जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है; वह सुख परसंबंधयुक्त है, बाधासहित है, विच्छिन्न है, बंध का कारण है और विषम है; इसप्रकार वह इन्द्रियसुख दुख ही है ।
इस पर भी यदि कोई दुख के कारण को ही सुख का कारण मानकर उसे महान मानना चाहता है तो हम क्या करें ?
अतीन्द्रियसुख की प्राप्ति में तो किसी परद्रव्य का कोई उपकार है ही नहीं; उसकी प्राप्ति