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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार २५९ आत्मा का कोई परिणमन चेतना का उल्लंघन नहीं करता । तात्पर्य यह है कि आत्मा के प्रत्येक परिणमन में चेतना विद्यमान रहती है। ___ जिसमें स्व, स्वरूप में और पर, पररूप में एक ही साथ भिन्नतापूर्वक प्रतिभासित होते हैं, वह ज्ञान है। जीव के द्वारा किया जानेवाला भाव कर्म है। वह दो प्रकार का है - निरुपाधिक शुद्धभावरूप कर्म और औपाधिक शुभाशुभभावरूप कर्म । इस कर्म (कार्य) के द्वारा उत्पन्न सुख-दुख कर्मफल है। शुद्धभावरूप कर्म का फल निराकुल सुख है और शुभाशुभभावरूप कर्म का फल आकुलतारूप दुख है। इसप्रकार ज्ञानचेतना धर्मरूप है और कर्मचेतना व कर्मफलचेतना धर्मरूप भी है और अधर्मरूप भी है; क्योंकि ज्ञानचेतना तो ज्ञानी के ही होती है; पर कर्मचेतना और कर्मफलचेतना ज्ञानी-अज्ञानी - दोनों को होती है। ज्ञानी को शुद्धोपयोगरूप कर्मचेतना और अतीन्द्रियसुख अथ ज्ञानकर्मकर्मफलान्यात्मत्वेन निश्चिनोति - अप्पा परिणामप्पा परिणामोणाणकम्मफलभावी। तम्हा णाणं कम्मं फलं च आदा मुणेदव्वो।।१२५।। आत्मा परिणामात्मा परिणामोज्ञानकर्मफलभावी। तस्मात् ज्ञानं कर्म फलं चात्मा ज्ञातव्यः ।।१२५।। आत्मा हि तावत्परिणामात्मैव, परिणामः स्वयमात्मेति स्वयमुक्तत्वात्। परिणामस्तु चेतनात्मकत्वेन ज्ञानं कर्म कर्मफलं वाभावितुंशीलः, तन्मयत्वाच्चेतनायाः। ततोज्ञानं कर्म कर्मफलंचात्मैव । एवं हि शुद्धद्रव्यनिरूपणायांपरद्रव्यसंपर्कासंभवात्पर्यायाणांद्रव्यान्त:प्रलयाच्च शुद्धद्रव्य एवात्मावतिष्ठते।।१२५।। रूप कर्मफलचेतना होती है और कदाचित् शुभाशुभभावरूप कर्मचेतना और इन्द्रियसुखदुखरूप कर्मफलचेतना भी होती है; पर अज्ञानी को सदा शुभाशुभभावरूप कर्मचेतना और इन्द्रियसख-दरखरूप कर्मफलचेतना ही होती है। यदि हम ज्ञानी-अज्ञानी का भेद नहीं करें तो सामान्यरूप से कहा जा सकता है कि चेतना जीव का लक्षण है और वह लक्षण किसी न किसी रूप में प्रत्येक जीव में सदा पाया ही जाता है।।१२३-१२४ ।। विगत गाथाओं में ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना का स्वरूप स्पष्ट करने के बाद अब इस गाथा में यह बताते हैं कि ये तीनों चेतनायें प्रकारान्तर से एक आत्मा ही हैं; क्योंकि ये आत्मा की ही पर्यायें हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) आत्मा परिणाममय परिणाम तीन प्रकार हैं।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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