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प्रवचनसार
पुद्गलस्वरूप परिणमित नहीं होता । "
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं; पर अन्त में निष्कर्ष के रूप में लिखते हैं कि
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“यद्यपि कथंचित् परिणामी होने से जीव का कर्तापन सिद्ध है; तथापि निश्चयनय से वह अपने परिणामों का ही कर्ता है, पुद्गल कर्मों का कर्ता तो व्यवहार से कहा जाता है। जब जीव शुद्धोपादानकारणरूप शुद्धोपयोग से परिणमित होता है, तब मोक्ष को प्राप्त करता है और अशुद्धोपादानकारणरूप अशुद्धोपयोग से परिणमित होता है, तब बंध को प्राप्त होता है ।
जीवों के समान पुद्गल भी निश्चयनय से अपने परिणामों का कर्ता है और व्यवहारनय से जीव के परिणामों का कर्ता कहा जाता है ।
अथ किं तत्स्वरूपं येनात्मा परिणमतीति तदावेदयति । अथ ज्ञानकर्मकर्मफलस्वरूपमुपवर्णयति -
परिणमदि चेदणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा । सापु णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा । । १२३ ।। गाणं अट्ठवियप्पो कम्मं जीवेण जं समारद्धं । तमणेगविधं भणिदं फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा । । १२४ ।। परिणमति चेतनया आत्मा पुनः चेतना त्रिधाभिमता । सा पुनः ज्ञाने कर्मणि फले वा कर्मणो भणिता ।। १२३ ।। ज्ञानमर्थविकल्पः कर्म जीवेन यत्समारब्धम् ।
तदनेकविधं भणितं फलमिति सौख्यं वा दुःखं वा ।। १२४ । ।
इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि भावकर्म का कर्ता आत्मा और द्रव्यकर्म का कर्ता पुद्गलद्रव्य की कार्माण वर्गणायें हैं; क्योंकि मोह-राग-द्वेषरूप भावकर्म आत्मा की विकारी पर्यायें हैं और ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म कार्माण वर्गणारूप पुद्गल की पर्यायें हैं । यह कथन निश्चयनय का है। व्यवहारनय से निमित्त की अपेक्षा भावकर्म का कर्ता पौद्गलिक कर्म और द्रव्यकर्म का कर्ता जीव के मोह-राग-द्वेषरूप परिणाम हैं।
यह तो आप जानते ही हैं कि जो परिणति जिस द्रव्य की हो, उसे उसी द्रव्य की कहना निश्चयनय है और उसे ही निमित्तादिक की अपेक्षा अन्य द्रव्य की कहना व्यवहारनय है ।
इस बात का उल्लेख मोक्षमार्गप्रकाशक के सातवें अधिकार के निश्चय - व्यवहार संबंधी प्रकरण में स्पष्टरूप से किया गया है। इस गाथा में प्रतिपादित विषयवस्तु पर निश्चय - व्यवहार