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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार २५३ “वस्तुत: जीव द्रव्यपने से अवस्थित होने पर भी पर्यायों से अनवस्थित है। इससे प्रतीत होता है कि संसार में कोई भी स्वभाव से अवस्थित नहीं है। तात्पर्य यह है कि किसी भी द्रव्य का स्वभाव अकेलाएकरूपरहने का ही नहीं है और इस अनवस्थितता का मूल हेतु संसार ही है; क्योंकि वह मनुष्यादि पर्यायात्मक है, वह स्वरूप से ही वैसा है। उसमें परिणमन करते हुए द्रव्य की पूर्वोत्तर दशा के त्याग-ग्रहणरूप क्रिया का नाम ही संसार है, यही संसार का स्वरूप है।" यद्यपि इस गाथा में यही कहा गया है कि प्रत्येक वस्तु के समान भगवान आत्मा भी द्रव्यदृष्टि से अवस्थित (सदा एकरूप) और पर्यायदृष्टि से अनवस्थित (प्रतिसमय परिवर्तनशील) है; तथापि यहाँ अवस्थित होने की अपेक्षा अनवस्थित होने पर अधिक वजन दिया गया है। तात्पर्य यह है कि यहाँ पर्यायदृष्टि की मुख्यता से कथन किया गया है।।१२०।। अथ परिणामात्मके संसारे कुत: पुद्गलश्लेषो येन तस्य मनुष्यादिपर्यायात्मकत्वमित्यत्र समाधानमुपवर्णयति - आदा कम्ममलिमसो परिणाम लहदि कम्मसंजुत्तं । तत्तो सिलिसदि कम्मं तम्हा कम्मं तु परिणामो।।१२१।। आत्मा कर्ममलीमस: परिणामं लभते कर्मसंयुक्तम् । तत: श्लिष्यति कर्म तस्मात् कर्म तु परिणामः ।।१२१।। यो हि नाम संसारनामायमात्मनस्तथाविधः परिणामः स एव द्रव्यकर्मश्लेषहेतुः। अथ तथाविद्यपरिणामस्याति को हेतुः, द्रव्यकर्म हेतुः तस्य, द्रव्यकर्मसंयुक्तत्वेनेवोपलम्भात् । एवंसतीतरेतराश्रयदोषः । न हि अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसंबद्धस्यात्मनः प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात्। एवं कार्यकारणभूतनवपुराणद्रव्यकर्मत्वादात्मनस्तथाविधपरिणामोद्रव्यकर्मैव । तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद्रव्यकर्मकर्ताप्युचारात् ।।१२१।। विगत गाथा में यह बताने के बाद कि संसार में कोई सर्वथा अवस्थित नहीं है; अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि इस परिणमनशील संसार में आत्मा से देह के संबंध का क्या कारण है ? गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) कर्ममल से मलिन जिय पा कर्मयुत परिणाम को। कर्मबंधन में पड़े परिणाम ही बस कर्म हैं।।१२१।। कर्म से मलिन आत्मा कर्मसंयुक्त परिणाम को प्राप्त करता है; उससे कर्म चिपक जाते हैं; इसलिए परिणाम ही कर्म हैं। -
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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