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प्रवचनसार
कोई स्थान प्राप्त नहीं है, सर्वत्र अनेकान्तवाद का ही साम्राज्य है॥११२-११३|| ___ गाथा ११२ में सत्-उत्पाद को अनन्यपना सिद्ध किया और गाथा ११३ में असत्-उत्पाद को अन्यपना सिद्ध किया; अब ११४वीं गाथा में एक ही द्रव्य में अन्यपना और अनन्यपना होने से जो विरोध मालूम पड़ता है; उसका निराकरण करते हैं। तात्पर्य यह है कि अब यह बताते हैं कि अपेक्षा से देखें तो दोनों में कोई विरोध नहीं है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत) द्रव्य से है अनन्य जिय पर्याय से अन-अन्य है।
पर्याय तन्मय द्रव्य से तत्समय अत: अनन्य है।।११४|| सर्वस्य हि वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्यविशेषौ परिच्छिदन्ती द्वे किल चक्षुषी, द्रव्यार्थिकं पर्यायार्थिकं चेति।
तत्र पर्यायार्थिकमेकान्तनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकेषु विशेषेषुव्यवस्थितं जीवसामान्यमेकमवलोकयतामनवलोकितविशेषाणां तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति। ___ यदा तु द्रव्यार्थिकमेकान्तनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यग्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकान् विशेषाननेकानवलोकयतामनवलोकितसामान्यानामन्यदन्यत्प्रतिभाति । द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषेभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात् गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत्।
द्रव्यार्थिकनय सेसबद्रव्य हैं और पर्यायार्थिकनय सेवेद्रव्य अन्य-अन्य हैं। क्योंकि उस समय तन्मय होने से द्रव्य पर्यायों से अनन्य है। इस गाथा के भाव को आ. अमृतचंद्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"वस्तुतः सभी वस्तुयें सामान्य-विशेषात्मक होने से वस्तु का स्वरूप देखनेवालों के क्रमश: सामान्य और विशेष को देखनेवाली-जाननेवाली दो आँखें हैं -
१. द्रव्यार्थिक और २. पर्यायार्थिक।।
इनमें से पर्यायार्थिक चक्षु को एकान्तत: (पूर्णतः, सर्वथा, पूरी तरह, अच्छी तरह) बन्द करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है; तब नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपनारूप पर्याय विशेषों में व्यवस्थित (सुनिश्चित रहनेवाले) एक जीव सामान्य को देखनेवाले (जाननेवाले) और विशेषों को नहीं देखने (जानने) वाले