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________________ प्रवचनसार पर प्राप्त करते स्वर्गसुख हि शुभोपयोगी आतमा ||११|| धर्मेण परिणतात्मा आत्मा यदि शुद्धसंप्रयोगयुतः। प्राप्नोति निर्वाणसुखं शुभोपयुक्तः च स्वर्गसुखम् ।।११।। यदायमात्मा धर्मपरिणतस्वभावः शुद्धोपयोगपरिणतिमुद्वहति तदा निःप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणसमर्थचारित्रः साक्षान्मोक्षमवाप्नोति । यदा तु धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभोपयोगपरिणत्या संगच्छते तदा सप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणासमर्थः कथंचिद्विरुद्धकार्यकारिचारित्र: शिखितप्तघृतोपसिक्तपुरुषो दाहदुःखमिव स्वर्गसुखबन्धमवाप्नोति । अत: शुद्धोपयोग उपादेय: शुभोपयोगो हेयः ।।११।। अथ चारित्रपरिणामसंपर्कासंभवादत्यन्तहेयस्याशुभपरिणामस्य फलमालोचयति - असुहोदएण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो। दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिदुदो भमदि अच्चंतं ।।१।। धर्मरूप परिणमित आत्मा यदि शुद्धोपयोग से युक्त हो तो मोक्षसुख को प्राप्त करता है और यदि शुभोपयोग से युक्त हो तो स्वर्गसुख को प्राप्त करता है। उक्त गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जब यह धर्मपरिणत स्वभाववाला आत्मा शुद्धोपयोग परिणति को धारण करता है, तब विरोधी शक्ति से रहित होने के कारण अपना कार्य करने में समर्थ चारित्रवान होने से साक्षात् मोक्ष को प्राप्त करता है और जब धर्मपरिणत स्वभाववाला होने पर भी शुभोपयोग परिणति से युक्त होता है, तब विरोधी शक्ति सहित होने से स्वकार्य करने में असमर्थ और कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाले चारित्र से युक्त होने से अग्नि से गर्म किये गये घी को किसी मनुष्य पर डाल देने पर जिसप्रकार वह मनुष्य उसकी जलन से दुःखी होता है; उसीप्रकार आत्मा भी स्वर्गसुख के बंध को प्राप्त होता है। इसलिए शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है।" संक्षेप में बात यही है कि साक्षात् मुक्ति का मार्ग तो एकमात्र शुद्धोपयोग या शुद्धपरिणतिरूप वीतरागचारित्र ही है, शुभोपयोग या शुभभावरूप सरागचारित्र नहीं। यद्यपि व्यवहार से शुभोपयोग या सरागचारित्र को भी धर्म कहा जाता है, मुक्तिमार्ग कहा जाता है; अत: व्यवहार से सराग चारित्रवाले शुभोपयोगियों को धर्मात्मा भी कहा ही जाता है, मुक्तिमार्गी कहा जाता है; तथापि निश्चय से तो वीतरागभाव ही धर्म है, वीतरागभाव ही मुक्ति
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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