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प्रवचनसार
अधिकरणरूप से द्रव्य के स्वभाव को धारण करके प्रवर्त्तमान उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यों से निष्पन्न द्रव्य का मूल साधनपने से उनसे निष्पन्न होता हुआ जो अस्तित्व है; वह द्रव्य का स्वभाव ही है।" ___ उक्त टीका का संक्षिप्त सार यह है कि द्रव्य और अस्तित्व में प्रदेशभेद नहीं है। वह अस्तित्व अनादि-अनंत है, अहेतुक एकरूप परिणति से सदा परिणमित होता है; इसलिए विभाव धर्म से भिन्न है। ऐसा होने से वह अस्तित्व द्रव्य का स्वभाव ही है।
इसीप्रकार गुण-पर्यायों और द्रव्य काअस्तित्वभीएक ही है,अभेदही है; क्योंकि गुणपर्यायें द्रव्य से ही निष्पन्न होती हैं और द्रव्य गुण-पर्यायों से निष्पन्न होता है। इदं तु सादृश्यास्तित्वाभिधानमस्तीति कथयति -
इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदित्ति सव्वगयं। उवदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं ।।९७।।
इह विविधलक्षणानां लक्षणमेकं सदिति सर्वगतम् ।
उपदिशता खलु धर्म जिनवरवृषभेण प्रज्ञप्तम् ।।९७।। इह किल प्रपञ्चितवैचित्र्येण द्रव्यान्तरेभ्यो व्यावृत्त्य वृत्तेन प्रतिद्रव्यं सीमानमासूत्रयता
इसीप्रकार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का और द्रव्य का अस्तित्व भी एक ही है; क्योंकि उत्पादव्यय-ध्रौव्य द्रव्य से ही निष्पन्न होते हैं और द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यों से ही निष्पन्न होता है।
इसप्रकार इस गाथा में स्वरूपास्तित्व का स्वरूप स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि स्वरूपास्तित्व प्रत्येक द्रव्य में अपना-अपना स्वतंत्र है। तात्पर्य यह है कि हम किसी महासत्ता के अंश नहीं हैं, अपितु हमारी सत्ता पूर्णत: हम में ही है।
यहाँ यह बात विशेष ध्यान देनेयोग्य है कि जिसप्रकार प्रत्येक द्रव्य की सत्ता पूर्णतः स्वतंत्र है; उसीप्रकार एक द्रव्य के अन्तर्गत होनेवाले गुणों की, प्रदेशों की और पर्यायों की सत्ता भिन्नभिन्न नहीं है, अपितु एक ही है। तात्पर्य यह है द्रव्य, उसके गुण और उनकी पर्यायों में प्रदेशभेद नहीं हैं।।९६||
विगत गाथा में स्वरूपास्तित्व की चर्चा की गई; अब इस गाथा में सादृश्यास्तित्व का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -