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प्रवचनसार
हैं, परसमयरूप परिणमित होते हैं।
जो सकल विद्याओं की मूल, असंकीर्ण द्रव्यपर्यायों और गुणपर्यायों से सुस्थित, आत्मा के स्वभाव का आश्रय करके यथोक्त आत्मस्वभाव की संभावना में समर्थ होने से पर्यायमात्र के प्रति बल को दूर करके आत्मा के स्वभाव में ही स्थिति करते हैं; जिन्होंने सहज विकसित मनुष्यादिगतिषु तद्विग्रहेषु चाविहिताहङ्कारममकारा अनेकापवरकसंचारितरत्नप्रदीपमिवैकरूपमेवात्मानमुपलभमाना अविचलितचेतनाविलासमात्रमात्मव्यवहारमुररीकृत्य क्रीडीकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्य व्यवहारमनाश्रयन्तो विश्रान्तरागद्वेषोन्मेषतया परममौदासीन्यमवलंबमाना निरस्तसमस्तपरद्रव्यसंगतितयास्वद्रव्येणैव केवलेन संगतत्वात्स्वसमया जायन्ते।
अतः स्वसमय एवात्मनस्तत्त्वम् ।।१४।। अनेकान्तदृष्टि से समस्त एकान्तदृष्टि के परिग्रह के आग्रह नष्ट कर दिये हैं; वे मनुष्यादि गतियों में और उन गतियों के शरीरों में अहंकार-ममकार न करके अनेक कमरों में संचारित रत्नदीपक की भाँति आत्मा को एकरूप ही उपलब्ध करते हुए अविचलित चेतनाविलासमात्र आत्मव्यवहार को अंगीकार करके, जिसमें समस्त क्रियाकलाप से भेंट की जाती है, ऐसे मनुष्यव्यवहार का आश्रय नहीं करते हुए राग-द्वेष का उन्मेष रुक जाने से परम-उदासीनता का आलम्बन लेते हुए समस्त परद्रव्यों की संगति दूर कर देने मात्र से स्वद्रव्य के साथ ही संगतता होने से वास्तव में स्वसमय होते हैं अर्थात् स्वसमयरूप परिणमित होते हैं।
इसलिए स्वसमय ही आत्मतत्त्व है।"
इस गाथा का भाव आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र के समान ही, पर अत्यंत संक्षेप में स्पष्ट करते हैं। उदाहरण भी अनेक कमरों में ले जानेवाले रत्नदीपक का ही देते हैं। हाँ, यह बात अवश्य है कि वे यहाँ अहंकार और ममकार की परिभाषा देते हैं; जो इसप्रकार है- "मनुष्यादि पर्यायरूपमैं हूँ - ऐसी परिणति को अहंकार कहते हैं और मनुष्यादि शरीर, पाँच इन्द्रियाँ और उनके विषय तथा तज्जन्यसुख मेरे हैं - ऐसी परिणति ममकार है।"
उक्त सम्पूर्ण कथन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहाँ मनुष्यादि असमानजातीयद्रव्यपर्यायों में एकत्व-ममत्व रखनेवालों को ही मुख्यतः परसमय कहा गया है।
जो लोग इन गाथाओं की व्याख्या करते समय भी केवलज्ञानादि पर्यायों से भिन्नता पर बल देते हैं; उन्हें इन गाथाओं और उनकी टीकाओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
आचार्य अमृतचन्द्र स्वयं इस बात पर विशेष बल दे रहे हैं कि जीव-पुद्गलात्मक