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प्रवचनसार
ध्यान देने की बात यह है कि मात्र एक द्रव्य के परिणमन को द्रव्यपर्याय नहीं कहते; अपितु अनेक द्रव्यों की मिली हुई अवस्थाओं को द्रव्यपर्याय कहते हैं। अथानुषङ्गिकीमिमामेव स्वसमयपरसमयव्यवस्थां प्रतिष्ठाप्योपसंहरति -
जो पज्जएसु मिस्दा जीवा परसमइम ति णिद्दिठ्ठा।
आदसहावम्हि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा ।।९४।। ये द्रव्यपर्यायें समानजातीयद्रव्यपर्याय और असमानजातीयद्रव्यपर्याय के भेद से दो प्रकार की होती हैं। समानजातीयद्रव्यपर्यायें पुद्गल में ही होती हैं; क्योंकि जीवादि द्रव्य तो आपस में मिलकर कभी किसी एक पर्यायरूप परिणमित होते ही नहीं हैं। __न तो जीव, धर्मादि अमूर्तिक द्रव्यों के साथ मिलकर परिणमित होता है और न दो जीव भी परस्पर बंधरूप होते हैं; एकमात्र पुद्गल परमाणु परस्पर मिलकर स्कन्धरूप परिणमित होते हैं। इसकारण समानजातीयद्रव्यपर्याय पुद्गलों में ही होती है।
जीव और शरीररूप पुद्गलों के बंधरूप मनुष्यादि पर्यायें असमानजातीयद्रव्यपर्यायें हैं; क्योंकि जीव और पुद्गलों की जाति एक नहीं है। जीव चेतन जाति का है और पुद्गल जड़ जाति का है; परन्तु सभी पुद्गल एक ही जड़ जाति के हैं; अत: जड़ परमाणुओं का पिण्ड स्कन्ध समानजातीयद्रव्यपर्याय है।
गुण पर्याय तो प्रत्येक द्रव्य के गुणों में होनेवाले प्रतिसमय के परिणमन को कहते हैं। जैसे जीव के ज्ञानगुण का मतिज्ञान, श्रुतज्ञानादिरूप परिणमन गुणपर्याय है। इसीप्रकार पुद्गल के रस गुण का खट्टा-मीठारूप परिणमन रसगुण की गुणपर्याये हैं। __इनमें जो परिणमन शुद्ध है, पूर्ण है; वह स्वभावपर्याय कहा जाता है और जो परिणमन अपूर्ण है, अशुद्ध है; वह विभावपर्याय है।
यद्यपि सभी द्रव्यपर्यायों और सभी गुणपर्यायों में एकत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि एवं भोक्तृत्वबुद्धि मिथ्यात्व है; तथापि यहाँ विशेष वजन मनुष्यादिपर्यायरूप असमानजातीयद्रव्यपर्यायों में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्वबुद्धि पर ही दिया जा रहा है।।९३||
विगत गाथा के चतुर्थ पाद में यह कहा गया है कि पर्यायमूढजीव परसमय हैं। अतः यहाँ यह प्रश्न सहज ही उपस्थित होता है कि यदि पर्यायमूढ़ जीव परसमय हैं तो स्वसमय कौन हैं?