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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन: द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार
गुण-द्रव्य से पर्यायें पर्ययमूढ़ ही है परसमय ||१३|| अर्थः खलु द्रव्यमयो द्रव्याणि गुणात्मकानि भणितानि । तैस्तु पुनः पर्यायाः पर्ययमूढा
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इह किल य: कश्चन परिच्छिद्यमानः पदार्थः स सर्व एव विस्तारायतसामान्यसमुदायात्मना द्रव्येणाभिनिर्वृत्तत्वाद्द्रव्यमयः । द्रव्याणि तु पुनरेकाश्रयविस्तारविशेषात्मकैर्गुणैरभिनिर्वृत्तत्वाद्गुणात्मकानि । पर्यायास्तु पुनरायतविशेषात्मका उक्तलक्षणैर्द्रव्यैरपि गुणैरप्यभिनिवृत्तत्वाद्द्रव्यात्मका अपि गुणात्मका अपि ।
तत्रानेकद्रव्यात्मकैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो द्रव्यपर्याय: । स द्विविधः, समानजातीयोऽसमानजातीयश्च । तत्र समानजातीयो नाम यथा अनेकपुद्गलात्मको द्व्यणुकरत्र्यणुक इत्यादि, असमानजातीयो नाम यथा जीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यादि ।
गुणद्वारेणायतानैक्यप्रतिपत्तिननिबन्धनो गुणपर्यायः । सोऽपि द्विविधः स्वभावपर्यायो विभावपर्यायश्च । तत्र स्वभावपर्यायो नाम समस्तद्रव्याणामात्मीयात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण प्रतिसमयसमुदीयमानषट्स्थानपतितवृद्धिहानिनानात्वानुभूतिः, विभावपर्यायो नाम रूपा
वस्तुत: पदार्थ द्रव्यमय है और द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं। द्रव्य और गुणों से पर्यायें होती हैं तथा पर्यायमूढ़ जीव ही परसमय होते हैं ।
इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "इस लोक में जो भी ज्ञेयपदार्थ हैं; वे सभी विस्तारसामान्यसमुदायात्मक और आयतसामान्यसमुदायात्मक द्रव्य से रचित होने से द्रव्यमय है, द्रव्यरूप हैं ।
एकमात्र द्रव्य जिनका आश्रय है - ऐसे विस्तारविशेषस्वरूप गुणों से रचित होने से द्रव्य गुणात्मक हैं और आयतविशेषस्वरूप पर्यायें उपर्युक्त द्रव्यों और गुणों से रचित होने से द्रव्यात्मक भी हैं और गुणात्मक भी हैं ।
अनेक द्रव्यात्मक एकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत द्रव्यपर्यायें हैं । वे द्रव्यपर्यायें दो प्रकार की होती हैं । समानजातीयद्रव्यपर्याय और असमानजातीयद्रव्यपर्याय ।
अनेक पुद्गलात्मक द्विअणुक, त्रिअणुक आदि स्कन्ध समानजातीय द्रव्यपर्यायें हैं और जीव- पुद्गलात्मक देव, मनुष्य आदि पर्यायें असमानजातीयद्रव्यपर्यायें हैं ।
गुणों द्वारा आयत की अनेकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत गुणपर्यायें हैं । वे भी दो प्रकार की होती हैं – स्वभावगुणपर्याय और विभावगुणपर्याय ।
सभी द्रव्यों के अपने-अपने अगुरुलघुत्वगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होनेवाली षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिरूप अनेकत्व की अनुभूति स्वभावपर्यायें हैं और रूपादि अथवा ज्ञानादि के