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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार
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विगत गाथा में प्रतिपादित साक्षात् धर्मपरिणत मुनिराजों की स्तुति-वंदन-नमन द्वारा प्राप्त पुण्य का फल दिखाया गया है। ध्यान रहे ये गाथाएँ तत्त्वप्रदीपिका टीका में उपलब्ध नहीं होतीं। ये दोनों गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं -
जो तं दिट्ठा तुट्ठो अब्भुट्टित्ता करेदि सक्कारं। वंदणणमंसणादिहिं तत्तो सो धम्ममादियदि ।।८।। तेण णराव तिरिच्छा देविं वामाणुसिंगदिं पप्पा।। विहविस्सरियेहिं सया संपुण्णमणोरहा होंति ।।९।।
(हरिगीत ) देखकर संतुष्ट हो उठ नमन वन्दन जो करे। वह भव्य उनसे सदा ही सद्धर्म की प्राप्ति करे।॥८॥ उस धर्म से तिर्यंच-नर नर-सुरगति को प्राप्त कर।
ऐश्वर्य-वैभववान अर पूरण मनोरथवान हों।।९।। विगत गाथा में उल्लिखित मुनिराजों को देखकर जो संतुष्ट होते हुए वंदन-नमन द्वारा उनका सत्कार करते हैं; वे उनसे धर्म ग्रहण करते हैं। उक्त पुण्य द्वारा मनुष्य व तिर्यंच, देवगति या मनुष्यगति को प्राप्त कर वे वैभव और ऐश्वर्य से सदा परिपूर्ण मनोरथवाले होते हैं।
जिसकी जिसमें श्रद्धा व भक्ति होती है; वह उनके वचनों को भी श्रद्धा से स्वीकार करता है; न केवल स्वीकार करता है; अपितु तदनुसार अपने जीवन को ढालता है। अत: यह स्वाभाविक ही है कि वह उनसे सद्धर्म की एवं पुण्य की प्राप्ति करता है।
पहली गाथा में इसी तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है और दूसरी गाथा में कहा है कि पुण्य के फल में वैभव और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
टीका में वैभव और ऐश्वर्य को परिभाषित कर दिया गया है। कहा है कि राजाधिराज, रूप-लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री आदि परिपूर्ण सम्पत्ति वैभव कहलाती है और आज्ञा के फल को ऐश्वर्य कहते हैं। अन्त में लिखा है कि उक्त पुण्य यदि भोगादि के निदान से रहित हो और सम्यक्त्व पूर्वक हो तो उसे मोक्ष का परम्पराकारण भी कहा जाता है।
ऐसा नहीं लगता है कि ये गाथायें आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित होंगी; क्योंकि इनमें प्रतिपादित विषयवस्तु और संरचना – दोनों ही आचार्य कुन्दकुन्द के स्तर की नहीं हैं।
इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार की आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीका और डॉ. हुकमचन्दभारिल्ल कृत ज्ञान-ज्ञेयतत्त्वप्रबोधिनी हिन्दी टीका में ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के अंतर्गत शुभपरिणामाधिकार समाप्त होता है।