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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार
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जमने-रमने से टूटती है, फूटती है, नष्ट होती है।।८०।।
८०वीं गाथा में दर्शनमोह के नाश की बात की है और अब ८१वीं गाथा में चारित्रमोह के नाश की बात करते हैं। उक्त गाथा की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि इसप्रकार मैंने सम्यग्दर्शन रूप चिन्तामणिरत्न प्राप्त कर लिया है; तथापि इसे लूटने के लिए प्रमादरूपी चोर विद्यमान हैं; ऐसा विचार कर वह ज्ञानी सम्यग्दृष्टि आत्मा जागृत रहता है, जागता रहता है, सावधान रहता है। अथैवं प्राप्तचिन्तामणेरपि मे प्रमादो दस्युरिति जागर्ति -
जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्म । जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं ।।८१।।
जीवो व्यपगतमोह उपलब्धवांस्तत्त्वमात्मनः सम्यक् ।
जहाति यदि रागद्वेषौ स आत्मानं लभते शुद्धम् ।।८१।। एवमुपवर्णितस्वरूपेणोपायेन मोहमपसार्यापि सम्यगात्मतत्त्वमुपलभ्यापि यदि नाम रागद्वेषौ निर्मूलयति तदा शुद्धमात्मानमनुभवति । यदि पुन: पुनरपि तावनुवर्तते तदा प्रमादतन्त्रतया लुण्ठितशुद्धात्मतत्त्वोपलम्भचिन्तारत्नोऽन्तस्ताम्यति।
अतोमयारागद्वेषनिषेधायात्यन्तंजागरितव्यम।।८।। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) जो जीव व्यपगत मोह हो निज आत्म उपलब्धि करें।
वे छोड़ दें यदि राग-रुष शुद्धात्म उपलब्धि करें।।८१|| जिसने मोह दूर किया है और आत्मा के सच्चे स्वरूप को प्राप्त किया है; वह जीव यदि राग-द्वेष को छोड़ता है तो शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है।
विगत गाथा में दर्शनमोह के नाश की विधि बताई गई थी और इस गाथा में चारित्रमोह के नाश की विधि बता रहे हैं।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“विगत गाथा में प्रतिपादित उपाय के अनुसार दर्शनमोह को दूर करके भी अर्थात् आत्मतत्त्व कोभलीभाँति प्राप्त करके भी जब यह जीव राग-द्वेष को निर्मूल करता है, तब शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है; किन्तु यदि पुन: पुन: उन राग-द्वेष का अनुसरण करता है, राग