________________
ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार
इस बात को स्वीकार नहीं करनेवाले अपार घोर संसार में परिभ्रमण करते हैं; अब इस गाथा में अथैवमवधारितशुभाशुभोपयोगाविशेषः समस्तमपि रागद्वेषद्वैतमपहासयन्नशेषदुः खक्षयाय सुनिश्चितमनाः शुद्धोपयोगमधिवसति -
एवं विदित्थो जो दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा । उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुब्भवं दुक्खं ।।७८।। एवं विदितार्थो यो द्रव्येषु न रागमेति द्वेषं वा । उपयोगविशुद्धः स क्षपयति देहोद्भवं दुःखम् ।।७८ ।। यो हि नाम शुभानामशुभानां च भावानामविशेषदर्शनेन सम्यक्परिच्छिन्नवस्तुस्वरूपः स्वपरविभागावस्थितेषु समग्रेषु ससमग्रपर्यायेषु द्रव्येषु रागं द्वेषं चाशेषमेव परिवर्जयति स किलैकान्तेनोपयोगविशुद्धतया परित्यक्तपरद्रव्यालम्बनोऽग्निरिवायःपिण्डादननुष्ठिताय: सार : प्रचण्ड
१३५
यह बता रहे हैं कि ज्ञानीजन इस बात को अच्छी तरह जानते हैं; इसलिए वे अनंतसुख के कारणरूप शुद्धोपयोग को अंगीकार करते हैं, अनंतसुख को प्राप्त करते हैं और देहोत्पन्न दुखों का क्षय करते हैं। इस गाथा की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि इसप्रकार यह आत्मा शुभ और अशुभ उपयोग की समानता सुनिश्चित करके समस्त राग-द्वेष द्वैत को दूर करते हुए सम्पूर्ण दुखों का क्षय करने का निश्चय करके शुद्धोपयोग में निवास करता है ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत )
विदितार्थजन परद्रव्य में जो राग-द्वेष नहीं करें।
शुद्धोपयोगी जीव वेतनजनित दुःख का क्षय करें ॥ ७८ ॥
इसप्रकार वस्तुस्वरूप को जानकर जो द्रव्यों के प्रति राग व द्वेष को प्राप्त नहीं होता; वह उपयोग विशुद्ध होता हुआ देहोत्पन्न दुख का क्षय करता है।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"जो जीव शुभ और अशुभभावों के अविशेष दर्शन ( समानता की श्रद्धा) से वस्तुस्वरूप को भलीभाँति जानता है और स्व और पर ऐसे दो विभागों में रहनेवाली समस्त पर्यायों
-