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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार
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जा सकता है; तथापि आशय यही है कि जबतक वह अपनी इस भूल को सुधारेगा नहीं, तबतक संसार में रुलेगा। भूल सुधार लेने पर वह अल्पकाल में भी मोक्ष जा सकता है। यही कारण है कि आचार्य जयसेन इसमें अभव्य की अपेक्षा लगा देते हैं।
वे कहते हैं कि पुण्य और पाप को समान नहीं माननेवाला अभव्य जीव अनंतकाल तक घोर संसार में परिभ्रमण करेगा।
उक्त सम्पूर्ण कथन का स्पष्ट अर्थ यह है कि भले ही व्यवहारनय या अशुद्धनिश्चयनय से पुण्य-पापकर्म, पुण्य-पापभाव और उनके फल में प्राप्त होनेवाले सुख-दुख में अन्तर बताया गया हो; तथापि निश्चय से परमसत्य बात तो यही है कि जो व्यक्ति पंचेन्द्रिय विषयों में सुख मानता हुआ जबतक पुण्य में उपादेय बुद्धि रखेगा, उसे पाप के समान ही बंध का कारण नहीं मानेगा: तबतक वह जीव इस मिथ्या मान्यता के कारण संसार में ही परिभ्रमण करेगा। ___ ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ जिस पुण्यभाव को पापभाव के समान हेय बताया जा रहा है; वह अज्ञानी गृहस्थों के होनेवाले शुभभावरूप पुण्य नहीं है; अपितु जिस पुण्य से अहमिन्द्रादि पदों की प्राप्ति होती है, ऐसे चौथे काल के मुनिराजों को होनेवाले पुण्य की बात है; क्योंकि गृहस्थ तो अहमिन्द्रादि पद प्राप्त ही नहीं करते हैं। गृहस्थ तो सोलहवें स्वर्ग के ऊपर जाते ही नहीं हैं; वे कल्पोपपन्न ही होते हैं; कल्पातीत नहीं।
इसीप्रकार पंचमकाल में भी कोई अहमिन्द्र पद प्राप्त नहीं करता, इसलिए यह बात चौथे काल के मुनिराजों के शुभभाव की ही है। तात्पर्य यह है कि यहाँ चौथे काल के मुनिराजों के पुण्यभाव को भी पापभाव के समान हेय बताया गया है तथा इस बात को स्वीकार नहीं करनेवालों कोअनन्तकाल तक भवभ्रमण करना होगा - यह कहा गया है।
विशेष ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ टीका में ऐसा लिखा है कि जो पुण्य-पाप में अहंकारिक अन्तर मानता है, मदमोह से आच्छन्न वह अज्ञानी अनंत संसार में भ्रमण करता है। अहंकारिक अन्तर का भाव यह है कि पुण्योदय से प्राप्त सामग्री में जो अहंकार (एकत्व) ममकार (ममत्व) करता है; वह अहंकारिक अन्तर माननेवाला अज्ञानी है और वह अनंतकाल तक भवभ्रमण करेगा। ___ यहाँ एक प्रश्न संभव है कि पुण्य-पाप में अन्तर माननेरूप छोटे से अपराध की इतनी बड़ी सजा कि वह अनंत कालतक संसार में भ्रमण करेगा। यह ककड़ी के चोर को कटार मारने जैसा अन्याय नहीं है क्या ?