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प्रवचनसार
कहा जा सकता है कि वे अधिकार के अन्त में होनेवाले मंगलाचरणरूप गाथायें ही हैं।
इसप्रकार की एक गाथा ज्ञानाधिकार के अन्त में भी प्राप्त होती है; जिसकी चर्चा यथास्थान की जा चुकी है। उक्त गाथा को ज्ञानाधिकार के अन्त में आनेवाला मंगलाचरण या फिर सुखाधिकार के आरंभ में आनेवाला मंगलाचरण भी कह सकते हैं।
इसीप्रकार इन गाथाओं को भी सुखाधिकार के अन्त में आनेवाला मंगलाचरण या शुभपरिणामाधिकार के आरंभ में आनेवाला मंगलाचरण कह सकते हैं।
इन गाथाओं की संगति दोनों ओर से मिलती है; क्योंकि इनके पहले आनेवाली गाथा में भी सिद्धों की चर्चा है और शुभपरिणाम अधिकार की आरंभिक गाथाओं में भी देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति की चर्चा की गई है।
एक गाथा शद्धोपयोगाधिकार के मध्य में भी आई है। भाग्य से उसमें भी सिद्धों का ही स्मरण किया गया है। उसे हम मध्य में होनेवाले मंगलाचरण के रूप में देख सकते हैं।
इसप्रकार अबतक कुल चार गाथायें ऐसी प्राप्त हुई हैं; जो तत्त्वप्रदीपिका में नहीं हैं, पर तात्पर्यवृत्ति में पायी जाती हैं। वे सभी गाथाएँ मंगलाचरणरूप गाथाएँ ही हैं; इसकारण उनके न होने पर भी विषय प्रतिपादन में कोई व्यवधान नहीं आता। ६८वीं गाथा के उपरान्त प्राप्त होनेवाली वे दो गाथाएँ इसप्रकार हैं -
तेजो दिट्ठी णाणं इड्डी सोक्खं तहेव ईसरियं । तिहुवणपहाणदइयं माहप्पं जस्स सो अरिहो।।५।। तंगुणदो अधिगदरं अविच्छिदं मणुवदेवपदिभावं। अपुणब्भावणिबद्धं पणमामि पुणो पुणो सिद्धं ।।६।।
( हरिगीत) प्राधान्य है त्रैलोक्य में ऐश्वर्य ऋद्धि सहित हैं। तेज दर्शन ज्ञान सुख युत पूज्य श्री अरहंत हैं।|५|| हो नमन बारम्बार सुरनरनाथ पद से रहित जो।
अपुनर्भावी सिद्धगण गुण से अधिक भव रहित जो||६|| जिनका तेज, केवलदर्शन, केवलज्ञान, अतीन्द्रियसुख, देवत्व और जिनकीईश्वरता, ऋद्धियाँ, तीन लोक में प्रधानपना और विशेष महिमा है: वे भगवान अरहंत हैं।