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________________ १०४ प्रवचनसार तप्तायोगोलानामिवात्यन्तमुपात्ततृष्णानां तददुःखवेगमसहमानानांव्याधिसात्म्यतामुपगतेषु रम्येषु विषयेषुरतिरुपजायते। ततोव्याधिस्थानीयत्वादिन्द्रियाणांव्याधिसात्म्यसमत्वाद्विषयाणां च न छद्मस्थानां पारमार्थिकं सौख्यम् ।।६३।। ___ येषांजीवदवस्थानि हतकानीन्द्रियाणि, न नाम तेषामुपाधिप्रत्ययं दुःखम्, किंतु स्वाभाविकमेव, विषयेषुरतेवलोकनात् । अवलोक्यते हि तेषां स्तम्बेरमस्य करेणुकुट्टनीगात्रस्पर्श इव, सफरस्य बडिशामिषस्वादइव, इन्दिरस्य संकोचसंमुखारविन्दामोदइव, पतङ्गस्य प्रदीपा/रूप इव, कुरङ्गस्य मृगयुगेयस्वर इव, दुर्निवारेन्द्रियवेदनावशीकृतानामासन्ननिपातेष्वपि विषयेष्वभिपात:। ___ यदि पुनर्न तेषां दुःखं स्वाभाविकमभ्युपगम्येत तदोपशांतशीतज्वरस्य संस्वेदनमिव, प्रहीणदाहज्वरस्यारनालपरिषेक इव, निवृत्तनेत्रसंरम्भस्य च वटाचूर्णावचूर्णमिव, विनष्टकर्णशूलस्य बस्तमूत्रपूरणमिव, रूढवणस्यालेपनदानमिव, विषयव्यापारोन दृश्येत । दृश्येत चासौ। ततः स्वभावभूतदुःखयोगिन एव जीवदिन्द्रिया: परोक्षज्ञानिनः ।।६४।। के वेग को सहन न कर सकने के कारण उन्हें व्याधि के प्रतिकार के समान रम्य विषयों में रति उत्पन्न होती है। इसलिए इन्द्रियाँ व्याधि के समान और विषय व्याधि के प्रतिकार के समान होने से छद्मस्थों के पारमार्थिक सुख नहीं है। जिनकी हत (निकृष्ट) इन्द्रियाँ जीवित हैं, उन्हें उपाधि के कारण दुख नहीं है (संयोगों के कारण दुख नहीं है); अपितु उनका दुख स्वाभाविक ही है; क्योंकि उनकी विषयों में रति देखी जाती है। जिसप्रकार हाथी हथिनीरूपी कुट्टनी के शरीर के स्पर्श की ओर. मछली बंसी में फंसे हुए मांस के स्वाद की ओर, भ्रमर बन्द होजानेवाले कमल की गंध की ओर, पतंगे दीपक की ज्योति के रूप की ओर तथा हिरन शिकारी के संगीत के स्वर की ओर दौड़ते हुए दिखाई देते हैं; उसीप्रकार दुर्निवार इन्द्रियवेदना के वशीभूत होते हुए, यद्यपि विषयों कानाश अति निकट है; तथापिवे विषयों की ओर दौड़ते दिखाई देते हैं। यदि उनका दुख स्वाभाविक है' - ऐसास्वीकार न किया जाय तो जिसप्रकार जिसका शीतज्वर उपशान्त हो गया है, वह पसीना लाने के लिए उपचार करता; जिसका दाहज्वर उतर गया है, वह कांजी से शरीर के ताप को उतारता, जिसकी आँख का दुख दूर हो गया है, वह वटाचूर्ण आँजता; जिसका कर्णशूल नष्ट हो गया है, वह कान में बकरे का मूत्र डालता और जिसका घाव भर गया है, वह लेप करता दिखाई नहीं देता; उसीप्रकार इन्द्रियसुखवालों के दुख नहीं हो तो उनके इन्द्रियविषयों में व्यापार देखने में नहीं आना चाहिए; किन्तु उनके विषय प्रवृत्ति देखी जाती है। इससे यह सिद्ध हआ कि जिनके इन्द्रियाँजीवित हैं; ऐसे परोक्षज्ञानियों के दुख स्वाभाविक ही है।"
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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