________________
ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : सुखाधिकार
अथ केवलस्यापि परिणामद्वारेण खेदस्य संभवादैकान्तिकसुखत्वं नास्तीति प्रत्याचष्टे
जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणमं च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा ॥ ६० ॥
यत्केवलमिति ज्ञानं तत्सौख्यं परिणामश्च स चैव ।
खेदस्तस्य न भणितो यस्मात् घातीनि क्षयं जातानि ।। ६० ।।
अत्र को हि नाम खेदः, कश्च परिणाम:, कश्च केवलसुखयोर्व्यतिरेकः, यतः केवलस्यैकान्तिकसुखत्वं न स्यात् ।
९७
कारण क्रमशः जानने के खेद से आकुलित है । इसप्रकार उक्त पाँच कारणों से परोक्षज्ञान अत्यन्त आकुलित होने से सुखस्वरूप नहीं है।
इसप्रकार यह निश्चित हुआ कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान अर्थात् केवलज्ञान अतीन्द्रिय सुख स्वरूप होने से उपादेय है और इन्द्रियज्ञानरूप परोक्षज्ञान सुखस्वरूप नहीं होने से हेय है ।। ५९ ।।
विगत गाथा में जोर देकर यह कहा है कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान अर्थात् केवलज्ञान पारमार्थिक सुखस्वरूप है और अब इस गाथा में उक्त कथन में आशंका व्यक्त करनेवालों का समाधान कर रहे हैं। इस गाथा की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्रदेव स्वयं लिखते हैं कि 'केवलज्ञान को भी परिणाम के द्वारा खेद हो सकता है; इसकारण केवलज्ञान एकान्तिकसुख नहीं है' - अब इस मान्यता का खण्डन करते हैं ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
-
( हरिगीत )
अरे केवलज्ञान सुख परिणाममय जिनवर कहा ।
क्षय हो गये हैं घातिया रे खेद भी उसके नहीं ॥ ६० ॥
जो केवल नाम का ज्ञान है अर्थात् केवलज्ञान है, वह सुख है, परिणाम भी वही है और उसे खेद नहीं कहा है; क्योंकि घातिकर्म क्षय को प्राप्त हो गये हैं।
तत्त्वप्रदीपिका टीका में उक्त गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
"यहाँ केवलज्ञान के सन्दर्भ में यह स्पष्ट किया जा रहा है कि खेद क्या है, परिणाम क्या है तथा केवलज्ञान और सुख में व्यतिरेक (भेद) क्या है कि जिसके कारण केवलज्ञान को एकान्तिक सुखत्व न हो?