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पंच परमेष्ठी
मुनि की ऋद्धि शक्ति - वह ऋद्धि शक्ति कैसी है ? कायबली ऋद्धि के बल से चाहे जितना छोटा-बड़ा शरीर बना लें - ऐसी सामर्थ्य होती है। वचन बल ऋद्धि से द्वादशांग शास्त्र का अन्तर्मुहूर्त में चिन्तन कर लेते हैं। आकाश में गमन करते हैं। जल के ऊपर गमन करते हैं; परन्तु जल के जीवों की विराधना नहीं करते हैं। भूमि में समा जाते हैं; परन्तु पृथ्वीकाय के जीवों की विराधना नहीं करते हैं।
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यदि कहीं विष बह रहा हो और वे उसे शुभदृष्टि से देखें तो वह अमृत हो जाता है; परन्तु मुनि महाराज ऐसा नहीं करते हैं तथा यदि कहीं अमृत बह रहा हो और मुनि महाराज क्रूरदृष्टि से देखें तो विष हो जाए; परन्तु वे ऐसा भी नहीं करते हैं।
सुखी, दया एवं शान्ति की दृष्टि से देखें तो कितने ही योजन के जीव सुखी हो जाएँ; दुर्भिक्ष आदि, ईति-भीति, दु:ख मिट जाएँ । यदि ऐसी शुभ ऋद्धि दयालु बुद्धि से स्फुरित हो तब तो दोष नहीं; किन्तु यदि क्रूरदृष्टि से देखें तो कितने ही योजन के जीव भस्म हो जाएँ; परन्तु वे ऐसा नहीं करते हैं।
जिनके शरीर का गन्धोदक, नौ द्वारों के मल, चरणों के तल की धूल तथा शरीर से स्पर्शित वायु आदि, शरीर को लगते ही कोढ़ आदि सबप्रकार के रोग नियम से नाश को प्राप्त हो जाते हैं।
ऐसे मुनि महाराज जिस गृहस्थ के यहाँ आहार करते हैं, उसकी भोजनशाला में नानाप्रकार की ऐसी असीम रसोई हो जाए कि यदि उस दिन चक्रवर्ती का सर्व कटक/ सेना भोजन करे तो भी भोजन कम न हो । चार हाथ की रसोई के क्षेत्र में ऐसी अवगाहना शक्ति हो जाती है। कि चक्रवर्ती की सम्पूर्ण सेना समा जाए और सभी पृथक्-पृथक् बैठकर भोजन करें, तब भी स्थान कम न पड़े।
जहाँ मुनि आहार करें, वहाँ उसके द्वार पर रत्नवृष्टि, पुष्पवृष्टि,
साधु का स्वरूप
गन्धोदकवृष्टि, जय-जयकार शब्द और देवदुन्दभि - ये पंचाश्चर्य होते हैं ।
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आहारदान का फल - सम्यग्दृष्टि श्रावक, मुनि को यदि एकबार आहार दे तो कल्पवासी देव ही होता है। मिथ्यादृष्टि एकबार मुनि को आहार दे तो उत्तमभोग भूमि का मनुष्य ही होता है, फिर परम्परा से मुक्ति को जाता है। शुद्धोपयोगी मुनि को एकबार भोजन देने का ऐसा अद्भुत फल होता है।
मुनिराज मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय ज्ञान के भी धारी होते हैं; अनेकप्रकार के गुण संयुक्त होते हुए भी कोई पुरुष, आकर मुनि को गाली देता है एवं उपसर्ग करता है तो उस पर बिलकुल भी क्रोध नहीं करते; अपितु परम दयालु बुद्धि होने से उसका भला ही चाहते हैं।
वे ऐसा विचार करते हैं कि यह भोला जीव है, इसे अपने हितअहित की खबर नहीं है। यह जीव इन परिणामों से बहुत दुःख पायेगा । मेरा तो कुछ बिगाड़ नहीं है; परन्तु यह जीव संसार-समुद्र में डूबेगा । इसलिए जो कुछ भी हो, इसको समझाना चाहिए - ऐसा विचार कर भव्यजीवों को हित-मित-प्रिय वचन, दयारूपी अमृतपूर्वक आनन्दकारी वचनों का निम्नप्रकार उच्चारण करते हैं
“हे पुत्र ! हे भव्य ! तुम स्वयं अपने को संसार - समुद्र में मत डुबाओ। तुम्हें इन परिणामों का खोटा फल लगेगा। तुम निकट भव्य हो; तुम्हारी आयु भी थोड़ी रही है; अतः अब सावधान होकर जिनप्रणीत धर्म अंगीकार करो। इस धर्म के बिना तुम अनादि से संसार में रुले हो और तुमने नरक - निगोद आदि के नानाप्रकार के दुःख सहे हैं, उन्हें तुम भूल गए हो।"
ऐसे दयालु श्रीगुरु के वचन सुनकर वह पुरुष संसार के भय से कम्पायमान होता हुआ, शीघ्र ही गुरु के चरणों में नमस्कार कर, अपने