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________________ पंच परमेष्ठी ५० वस्तु माँगता है, तो माता-पिता बालक जान उससे प्रीति ही करते हैं और खाने के लिए मिठाई आदि अच्छी वस्तु निकालकर देते ही हैं। वैसे ही "प्रभु! मैं बालक हूँ, आप माता-पिता हैं; अतः आप मुझे बालक जानकर क्षमा करो। मेरे प्रश्न का उत्तर देकर सन्देह का निवारण करो; जिससे मेरा अज्ञान-अन्धकार विलीन हो जाये/ नष्ट हो जाये और तत्त्व का स्वरूप प्रतिभासित हो, आपा पर की पहचान हो - ऐसा उपदेश मुझे दो।" इसप्रकार शिष्य खड़ा खड़ा वचनालाप कर चुप हो गया । पश्चात् मुनि महाराज शिष्यजनों के अभिप्राय के अनुसार मिष्ट, मधुर, आत्महितकारी, कोमल ऐसी अमृतमयी वचनों की पंक्ति से मेघसमान शिष्यजनों का पोषण करते हुए इसप्रकार के वचन कहने लगे - राजा को हे राजन् ! देव को हे देव ! सामान्य पुरुष को हे पुत्र ! “हे भव्य ! हे वत्स ! तुम निकट भव्य हो और अब तुम्हारा संसार थोड़ा है, जिससे तुम्हें यह धर्मरुचि उत्पन्न हुई है। अब तुम मेरा वचन अंगीकार करो। मैं तुम्हें जिनवाणी के अनुसार कहता हूँ, अतः चित्त देकर श्रवण करो- " "यह संसार महाभयानक है। धर्म बिना इस संसार में कोई किसी भी प्रकार का बन्धु और सहायक नहीं है। इसलिए एक धर्म का ही सेवन करो। " पश्चात् इसप्रकार मुनिराज का उपदेश पाकर यथायोग्य सब ने जिनधर्म ग्रहण किया । किन्हीं ने मुनि के तथा किन्हीं ने श्रावक के व्रत ग्रहण किये। किन्हीं ने यथायोग्य प्रतिज्ञा ग्रहण की, किन्हीं ने प्रश्नों के उत्तर सुने और किन्हीं ने अपने-अपने सन्देह का निवारण किया। इसप्रकार ५१ साधु का स्वरूप नानाप्रकार का पुण्य उपार्जन कर, ज्ञान की वृद्धि कर, मुनिराज को फिर नमस्कार कर, मुनिराज के गुणों का स्मरण करते-करते वे सब अपनेअपने स्थान को चले गए। जिसप्रकार बन्धनरहित स्वेच्छाचारी हाथी वन में ही गमन करता है; उसीप्रकार मुनि महाराज भी गमन करते हैं। जिसप्रकार हाथी धीरेधीरे सूँड़ को चलाता हुआ, सूँड़ से भूमि को स्पर्श करता हुआ, सूँड़ को इधर-उधर फैलाता हुआ एवं धरती को सूँड़ से सूँघता हुआ - नि:शंक - निर्भय गमन करता है; उसीप्रकार मुनि महाराज धीरे-धीरे ज्ञानदृष्टि से भूमि को शोधते हुए निर्भय, नि:शंक एवं स्वेच्छाचारपूर्वक विहार-कार्य करते हैं। मुनिराज के भी नेत्रों के द्वार से ज्ञानदृष्टि भूमि पर्यन्त फैली है; यही इनकी सूँड़ है, जिससे हाथी की उपमा सम्भवित है। गमन करते हुए वे जीवों की विराधना नहीं चाहते अथवा मुनि गमन ही नहीं करते; अपितु भूली हुई निज निधि को देखते जाते हैं। गमन करते-करते ही स्वरूप में लग जाते हैं, तब खड़े रह जाते हैं। फिर शुद्धोपयोग से नीचे उतरते हैं, तब फिर गमन करते हैं । बाद में एकान्त में बैठकर आत्मिकध्यान करते हैं और आत्मिकरस पीते हैं। मुनिराज की स्वरूपगुप्ति - जैसे कोई क्षुधा से पीड़ित तृषावान पुरुष, ग्रीष्म ऋतु में मिश्री की डली से घुला मिला शीतल जल अत्यन्त रुचि से गटक-गटक कर पीता है और अत्यन्त तृप्त होता है; वैसे ही शुद्धोपयोगी महामुनि स्वरूपाचरण में अत्यन्त तृप्त हैं, बार-बार उसी रस को चाहते हैं । उसको छोड़ किसी समय, पूर्व की वासना से शुभोपयोग में लगते हैं, तब यह जानते हैं कि मेरे ऊपर आफत आई है। यह हलाहल विष के समान आकुलता मुझसे कैसे भोगी जाए ? इससमय मेरा आनन्दरस निकल गया । पुनः मुझे आनन्दरस की प्राप्ति होगी कि
SR No.008363
Book TitlePanch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size215 KB
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