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________________ पंच परमेष्ठी सिद्ध का स्वरूप - इसके अतिरिक्त विशेष गुण इसप्रकार जानना कि एक गुण में अनन्तगुण हैं और अनन्तगुणों में एक गुण है; किन्तु गुणों में गुण मिलते नहीं और सर्व गुणों में मिले भी हैं। जैसे स्वर्ण में भारी, पीला, चिकना इत्यादि अनेक गुण हैं, अतः क्षेत्र की अपेक्षा तो सर्व गुणों में पीत गुण पाया जाता है और पीले गुण में क्षेत्र की अपेक्षा सर्व गुण पाए जाते हैं और क्षेत्र की ही अपेक्षा गुण मिले हुए रहते हैं तथा सभी के प्रदेश एक ही हैं। स्वभाव की अपेक्षा सबके स्वरूप अलग-अलग हैं। पीले का स्वभाव अन्य है तथा चिकने का स्वभाव अन्य ही है। इसीप्रकार आत्मा के विषय में जानना और अन्य द्रव्यों में भी जानना तथा अनेकप्रकार अर्थपर्याय एवं व्यंजनपर्याय का यथार्थ ज्ञान शास्त्र के अनुसार जानना उचित है। ___ सुख-दुःख - इस जीव को सुख की वृद्धि तथा हानि दो प्रकार की होती है। वही कहते हैं - जितना ज्ञान है, उतना ही सुख है। इसलिए ज्ञानावरणादि का उदय होने पर तो सुख-दुःख दोनों का नाश होता है। जब ज्ञानावरणादि का तो क्षयोपशम होता है और मोहकर्म का उदय होता है, तब जीव के दुःख की शक्तिपर्याय उत्पन्न होती है। सुखशक्ति तो आत्मा का निज गुण है, जो कर्म के उदय बिना है; किन्तु दुःख की शक्ति अर्थात् पर्याय कर्म के निमित्त से होती है, वह औपाधिक शक्ति है, कर्म का उदय मिटने पर जाती रहती है। सुखशक्ति कर्म का उदय मिटने पर प्रकट होती है, इसलिए कि वस्तु का द्रव्यत्व स्वभाव है। ___ यहाँ शिष्य प्रश्न करता है - "हे स्वामी ! हे प्रभु! आपकी कृपा से द्रव्यकर्म एवं नोकर्म से मेरा स्वभाव भिन्न/न्यारा दिखा। अब मुझे राग-द्वेष से न्यारा दिखाओ।" ___ तब श्रीगुरु कहते हैं - "हे शिष्य, तुम सुनो ! जैसे जल का स्वभाव शीतल है और अग्नि के निमित्त से जल उष्ण होता है। वह उष्ण होने पर पर्याय में अपना शीतल गुण भी खो देता है, स्वयं उष्णरूप होकर परिणमता है तथा औरों को भी आताप उत्पन्न करता है किन्तु कुछ समय पश्चात् जैसे-जैसे अग्नि का संयोग मिटता है, वैसे-वैसे जल का स्वभाव पर्याय में शीतल होता जाता है तथा औरों को भी आनन्दकारी होता है।" “वैसे ही इस आत्मा का स्वभाव सुख है और कषाय के निमित्त से आकुल-व्याकुल होकर पर्याय में परिणमन करता है। सर्व निराकुलित गुण जाता रहता है, तब अनिष्टरूप लगता है; किन्तु जैसेजैसे कषाय का निमित्त मिटता जाता है, वैसे-वैसे निराकुलित गुण प्रकट होता जाता है, तब वह इष्ट लगता है।" “किंचित् कषाय के मिटने पर भी ऐसा शान्तिस्वरूप सुख प्रकट होता है, तो न जाने परमात्मदेव के जो सम्पूर्ण कषाय मिटने पर जिनके अनन्तचतुष्टय प्रकट हुआ है, उनका वह सुख कैसा होगा? थोड़े से निराकुल स्वभाव को जानने से सम्पूर्ण निराकुलित स्वभाव की प्रतीति आती है तो सम्पूर्ण शुद्ध आत्मा कितना निराकुलित स्वभाव का होगा! - ऐसा अनुभव मुझे भलीभाँति होता है।" ___ यहाँ शिष्य प्रश्न करता है - "हे प्रभु ! बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का प्रकट चिह्न क्या है ? उसका स्वरूप कहो।" ___तब श्रीगुरु कहते हैं - "जैसे किसी बालक को जन्म से ही तहखाने में रखा और वह वहीं बड़ा हुआ; फिर कितने ही दिनों के पश्चात् उसे रात्रि के समय बाहर निकाला और उससे प्रश्न किया कि सूर्य की दिशा, प्रकाश और बिम्ब कैसा होता है?" तब वह बालक कहता है - "मैं तो नहीं जानता हूँ कि सूर्य की
SR No.008363
Book TitlePanch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size215 KB
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