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पंच परमेष्ठी
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मैं तो चैतन्य, अमूर्तिक, निर्मल, ज्ञायक, सुखमयी आनन्द स्वभाव को लिए हुए प्रतिसमय परिणमन करता हूँ । इस शरीर के और मेरे भिन्नपना प्रत्यक्ष है । इसके द्रव्य-गुण- पर्याय अलग और मेरे द्रव्यगुण-पर्याय अलग, इसका प्रदेश अलग और मेरा प्रदेश अलग तथा इसका स्वभाव पृथक् और मेरा स्वभाव पृथक् है ।
यहाँ कोई ऐसा कहे कि पुद्गलद्रव्यों से बारम्बार भिन्नपना हुआ, किन्तु शेष चार द्रव्यों से अथवा अन्य जीवद्रव्य से तो पृथक्पना नहीं हुआ ?
उसका उत्तर यह है कि चार द्रव्य - धर्म, अधर्म, आकाश और काल तो अनादिकाल से लेकर एक स्थान पर अचलरूप से स्थित हैं। अन्य जीवद्रव्य का संयोग प्रत्यक्ष ही मुझसे भिन्न है, इसलिए उनको क्या भिन्न करना ? एक पुद्गलद्रव्यों की ही उलझन है, इसलिए इसी से अलग करना उचित है। अधिक विकल्प करने का क्या प्रयोजन ?
जाननेवाला तो थोड़े ही में जान ले और नहीं जाननेवाला अधिक में भी न जाने । इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि यह बात युक्ति एवं ज्ञान कला से साध्य है; बल, तकरार / झगड़े से साध्य नहीं है ।
इन्द्रियों और मन के द्वार से जानपना यह आत्मा शरीर में रहता हुआ इन्द्रियों तथा मन के द्वार से किसप्रकार जानता है ?
वही कहते हैं - जिसप्रकार एक राजा को किसी एक बलवान ने बहुत श्वेत, बड़े, ऊँचे शिखरवाले महल के बन्दीखाने में रखा। उस बन्दीखाने में पाँच झरोखे हैं और बीच में एक सिंहासन स्थित है।
उन झरोखों में ऐसी शक्तियुक्त काँच लगा है और सिंहासन में ऐसी शक्ति लिए हुए रत्न लगा हुआ है कि राजा सिंहासन पर बैठा हुआ झरोखों में से अनुक्रम से देखता है।
प्रथम झरोखे में से देखें - तब तो स्पर्श गुण के आठ पर्यायसहित
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सिद्ध का स्वरूप पदार्थ दिखते हैं, अवशेष पदार्थ उसमें से नहीं दिखते। पुन: उसी सिंहासन पर बैठा हुआ राजा दूसरे झरोखे में से देखे - तब पाँच जाति के रस की शक्ति लिए पदार्थ दिखते हैं और अवशेष पदार्थ नहीं दिखते । पुनः सिंहासन पर बैठा हुआ राजा तीसरे झरोखे में से देखे - तब गन्ध के दो जाति सहित पदार्थ दिखते हैं और अवशेष पदार्थ नहीं दिखते। पुनः सिंहासन के ऊपर बैठा हुआ राजा चौथे झरोखे में से देखे - तब पाँच जाति के वर्णसहित पदार्थ दिखते हैं, अवशेष पदार्थ हैं तो भी नहीं दिखते। पुनः सिंहासन पर बैठा हुआ राजा पाँचवें झरोखे में से देखे - तब सप्त जाति के शब्दमयी पदार्थ दिखते हैं और अवशेष पदार्थ नहीं दिखते ।
जब वह राजा पाँचों झरोखों का अवलोकन छोड़कर उनमें से देखना बन्द कर, सिंहासन के ऊपर दृष्टि कर, पदार्थ का विचार करे; तब बीसों जाति के तो मूर्तिक-पदार्थ और आकाशादिक अमूर्तिकपदार्थ सब दिखते हैं।
झरोखों तथा सिंहासन के बिना वहाँ के पदार्थों को जानना चाहे तो नहीं जान पाता। अब राजा को बन्दीखाने से छोड़कर महलद्वार से निकाले, तब बिना विचार के ही राजा को दशों दिशाओं के सर्व मूर्तिक और अमूर्तिक पदार्थ प्रतिभासित होते हैं।
यह देखने का स्वभाव राजा का है, सम्पूर्ण महल का नहीं है। मात्र पूरे महल के निमित्त से ज्ञान आच्छादित हो जाता है तथा कोई निर्मल जाति के परमाणु झरोखे और सिंहासन में लगे हैं, उनके निमित्त से किंचित् मात्र जानपना रहता है। दूसरी बात यह है कि महल का स्वभाव तो सर्व ज्ञान को घातने का है।
इसीप्रकार इस शरीररूपी महल में यह आत्मा कर्मों के निमित्त से बन्दीखाने में स्थित है। इसमें पाँच इन्द्रियोंरूपी तो झरोखे हैं और मनरूपी सिंहासन है । जब यह आत्मा जिस इन्द्रिय के द्वार से अवलोकन करता