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________________ पदार्थ विज्ञान भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला है। अस्तित्व (सत्) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के बिना नहीं होता, इसलिये सत्त्व को त्रिलक्षण अनुमोदना। ___ पहले यथार्थ श्रवण करके वस्तु को बराबर जाने कि - "यह ऐसा ही है" तो ज्ञान निःशंक हो और ज्ञान निःशंक हो तभी अंतर में उसका मंथन करके निर्विकल्प अनुभव करे; किन्तु जहाँ ज्ञान ही मिथ्या हो और “ऐसा होगा या वैसा" - ऐसी शंका में झूलता हो वहाँ अन्तर में मंथन कहाँ से होगा? निःशंक ज्ञानरहित मंथन भी मिथ्या होता है, अर्थात् मिथ्याज्ञान और मिथ्याश्रद्धा होती है। पहले वस्तु स्थिति क्या है, वह बराबर ध्यान में लेना चाहिये । वस्तु को बराबर ध्यान में लिये बिना किसका मंथन करेगा? ___ वस्तु परिणाम का उल्लंघन नहीं करती, क्योंकि परिणाम सत् है। यदि वस्तु परिणाम का उल्लंघन करे तब तो “सत्” का ही उल्लंघन; हो जायेगा। और वस्तु “है" - ऐसा सिद्ध नहीं होगा। जबकि वस्तु तीनों काल के परिणाम के प्रवाह में वर्तती है। अहो, यह तो सम्पूर्ण ज्ञेय को प्रतीति में लेने का मार्ग है। इसे चाहे सम्यक् नियतिवाद कहो या यथार्थ मोक्षमार्ग का पुरुषार्थ कहो, वीतरागता कहो अथवा धर्म कहो - सब इसमें आ जाता है। __ आचार्यदेव कहते हैं कि वस्तु का स्वभाव ही यही है। जो ऐसे स्वभाव को जाने, उसे अपूर्व आनंद प्रगट हुए बिना न रहे । जहाँ वस्तु को त्रिलक्षण जाना, वहाँ आत्मा स्वयं सम्यक् स्वभाव में ढले बिना नहीं रहता तथा वस्तु सम्यक्-स्वभावरूप परिणमित होने पर अपूर्व आनंद का अनुभव होता ही है। इसलिये यहाँ कहा है कि ऐसे वस्तु स्वभाव को आनंद से मान्य करना। देखो, वस्तु परिणाम का उल्लंघन नहीं करती, इसलिये वस्तु पर ही दृष्टि गई, परिणाम-परिणामी की एकता हुई, इसलिये सम्पूर्ण सत् एकाकार हो गया - सम्पूर्ण स्व-ज्ञेय अभेद हो गया। जो ऐसे स्वज्ञेय को जाने और प्रवचनसार-गाथा ९९ माने उसे वस्तुस्वभाव की सम्यक्प्रतीति और अपूर्व आनंद का अनुभव हुए बिना नहीं रहता। जिसप्रकार केवलज्ञानी लोकालोक-ज्ञेय को सत्रूप से जानता है, उसीप्रकार सम्यक्दृष्टि भी उसे ज्ञेयरूप से स्वीकार करता है, और उसे जानने वाले अपने ज्ञानस्वभाव को भी वह स्व-ज्ञेयरूप से स्वीकार करता है। वहाँ उसकी रुचि स्वभाववान् अन्तरद्रव्य की ओर ढलती है, उस रुचि के बल से निर्विकल्पता हुए बिना नहीं रहती, निर्विकल्पता में आनंद का अनुभव भी साथ ही होता है। प्रश्न :- कितने काल में कितने जीव मोक्ष में जाते हैं - ऐसी तो कोई बात इसमें नहीं आयी? उत्तर :- इतने काल में इतने जीव मोक्ष जाते हैं - यहाँ ऐसी गिनती की मुख्यता नहीं है, किन्तु मोक्ष कैसे हो, उसकी मुख्य बात है। स्वयं ऐसे यथार्थ स्वभाव को पहिचाने तो अपने को सम्यक्त्व और वीतरागता हो, और मोक्ष हो जाये। आत्मा का मोक्ष कब होता है - ऐसी काल की मुख्यता नहीं है, किन्तु आत्मा का मोक्ष किस प्रकार होता है - यही मुख्य प्रयोजन है और इसी की यह बात चल रही है। जिसप्रकार सत् है उसीप्रकार स्वीकार करे तो ज्ञान सत् हो और शांति आये । इस गाथा में दो सम-अंक (९९) हैं और वह भी दो नौ-नौ के । नौ प्रकार के क्षायिकभाव हैं इसलिये नौ का अंश क्षायिकभाव सूचक है और दो नौ इकट्ठे हुए इसलिये समभाव-वीतरागता बतलाते हैं, - क्षायिकसम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र - दोनों साथ आ जायें ऐसी अपूर्व बात है। अंक तो जो हैं सो हैं, किन्तु यहाँ अपने भाव का आरोप करना है न! ___ वर्तमान-प्रवर्तित परिणाम में वस्तु वर्त रही है, इसलिये सम्पूर्ण वस्तु ही वर्तमान में वर्तती है। वह वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाली है। यहाँ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कहकर सत् सिद्ध करते हैं।
SR No.008362
Book TitlePadartha Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size148 KB
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