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पदार्थ विज्ञान अपने समय में सत् हैं - ऐसा कहते ही अपना स्वभाव ज्ञायक ही है - ऐसा उसमें सहज आ जाता है।
इस गाथा में क्षेत्र का उदाहरण देकर पहले द्रव्य का त्रिकाली सत्पना बतलाया, उसके त्रिकाली प्रवाहक्रम के अंश बतलाये और उन अंशों में (परिणाम में) अनेकतारूप प्रवाहक्रम का कारण उनका परस्पर व्यतिरेक सिद्ध किया। तत्पश्चात् सम्पूर्ण द्रव्य के समस्त परिणामों को स्व-अवसर में वर्तनेवाला उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य बतलाया। ___ अब, प्रत्येक समय के वर्तमान परिणाम को लेकर उसमें उत्पादव्यय-ध्रौव्यपना बतलाते हैं। पहले समय परिणामों की बात थी, अब यहाँ केवल एक परिणाम की अपेक्षा बात करते हैं। इसके बाद परिणामी द्रव्य की ही बात कहकर द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य बतलायेंगे। ___ “जिसप्रकार वस्तु (क्षेत्र) का जो छोटा से छोटा (अन्तिम) अंश पूर्व-प्रदेश के विनाशरूप हैं, वही अंश उत्तर-प्रदेश के उत्पाद-स्वरूप है तथा वही परस्पर अनुस्यूति से रचित एकवास्तुपने द्वारा अनुभव-स्वरूप है, दो में से एक स्वरूप भी नहीं है। उसीप्रकार प्रवाह (काल) का जो छोटे से छोटा अंश पूर्व-परिणाम के विनाश-स्वरूप है, वही उत्तरपरिणाम के उत्पाद-स्वरूप है तथा वही परस्पर अनुस्यूति से रचित एकप्रवाहपने द्वारा अनुभयस्वरूप है।"
जिसप्रकार असंख्यप्रदेशी आत्मा का कोई भी एक प्रदेश लो तो वह प्रदेश (क्षेत्र-अपेक्षा से) पूर्व-प्रदेश के व्ययरूप है, उत्तर-प्रदेश के उत्पादरूप है और अखण्डक्षेत्र की अपेक्षा से ध्रौव्य है, उसीप्रकार अनादि-अनंत प्रवाहक्रम में प्रवर्त्तमान कोई भी एक परिणाम पूर्व के परिणाम से व्ययरूप है, बाद के परिणाम की अपेक्षा से अर्थात् स्वयं अपनी अपेक्षा से उत्पाद-स्वरूप है और पहले-पीछे का भेद किये बिना सम्पूर्ण प्रवाहक्रम के अंशरूप से देखें तो वह परिणाम ध्रौव्यरूप है । इसप्रकार प्रत्येक परिणाम में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है।
प्रवचनसार-गाथा ९९
जहाँ समस्त परिणामों के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की बात थी, वहाँ 'अपने-अपने अवसर में' - ऐसा कहकर उस प्रत्येक का स्वतंत्र स्वकाल बतलाया था और यहाँ एक परिणाम की विवक्षा को लक्ष्य में रखकर बात करने से उन शब्दों का उपयोग नहीं किया, क्योंकि वर्तमान एक ही परिणाम लिया, सो उसी में उसका वर्तमान स्वकाल आ गया।
वर्तमान वर्तनेवाला परिणाम पूर्व-परिणाम के अभावरूप ही है, इसलिये पूर्व के विकार का अभाव करने की बात नहीं रही और वर्तमान परिणाम वर्तमान में सत्रूप है ही, इसमें भी फेरफार करना नहीं रहता - ऐसा समझने पर मात्र वर्तमान परिणाम की दृष्टि से परिणाम और परिणामी की एकता होने पर सम्यक्त्व का उत्पाद होता है, उसमें पूर्व के मिथ्यात्वपरिणाम का तो व्यय है ही, उसे दूर नहीं करना पड़ता । किसी भी परिणाम को मैं नहीं बदल सकता, मात्र जानता हूँ - ऐसा मेरा स्वभाव है - इसप्रकार ज्ञान-स्वभाव की प्रतीति में सम्यक्त्व-परिणाम का उत्पाद है
और उसी में मिथ्यात्व का व्यय है; इसलिये मिथ्यात्व को दूर करूँ और सम्यक्त्व प्रगट करूँ - यह बात भी नहीं रहती। जहाँ ऐसी बुद्धि हुई, वहाँ उस समय का सत्परिणाम स्वयं ही सम्यक्त्व के उत्पादरूप और मिथ्यात्व के व्ययरूप है तथा एक-दूसरे के साथ सम्बन्धित परिणामों के अखण्ड प्रवाहरूप से वह परिणाम ध्रौव्य है। इसप्रकार प्रत्येक परिणाम उत्पादव्यय-ध्रौव्ययुक्त सत् है।
जिसप्रकार सम्पूर्ण वस्तु सत् है, उसीप्रकार उसका वर्तमान भी सत् है। वस्तु के त्रिकाली प्रवाह में प्रत्येक समय का अंश सत् है। वर्तमान समय का परिणाम अपने से सत् है, पूर्व के परिणाम के अभाव के कारण नहीं । वह वर्तमान अंश पर से नहीं, किन्तु अपने से है। प्रत्येक समय का वर्तमान अंश निरपेक्ष-रूप से अपने से ही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप सत् है।
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