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________________ पदार्थ विज्ञान होता है। ___ अहो! द्रव्य के परिणामों का स्व-अवसर कहो अथवा क्रमबद्ध परिणाम कहो, उसकी प्रतीति करने से त्रिकाली द्रव्य पर ही दृष्टि जाती है। परिणाम के स्व-अवसर की यह बात स्वीकार करने से निमित्ताधीन दृष्टि नहीं रहती, निमित्त आये तो वस्तु में परिणमन हो या निमित्त के कारण परिणाम में फेरफार होता है, कर्म के उदय से विकार होता है या व्यवहार करतेकरते परमार्थ प्रगट होता है, पर्याय के आधार से पर्याय होती है - ऐसी मान्यता छूट जाती है। समस्त परिणाम अपने-अपने अवसर में द्रव्य में से प्रगट होते हैं। जहाँ द्रव्य का प्रत्येक परिणाम अपने-अपने अवसर में 'सत्' है वहाँ निमित्त के सन्मुख देखना ही कहाँ रहा? और मैं पर में फेरफार करूँ या पर से मुझसे फेरफार हो - यह बात भी कहाँ रही? मात्र ज्ञाता और ज्ञेयपना ही रहता है, यही मोक्षमार्ग है, यही सम्यक् पुरुषार्थ है। जो तीनकाल के परिणाम हैं, वे द्रव्य के प्रवाहरूपी सांकल की कड़ियाँ हैं। जिसप्रकार सांकल की कड़ियाँ आगे-पीछे नहीं होती; जैसी हैं, वैसी ही रहती हैं, उसीप्रकार द्रव्य के अनादि-अनंत परिणाम अपने अवसर से आगे-पीछे नहीं होते, प्रत्येक परिणाम अपने-अपने अवसर में सत् हैं। इसमें तीन काल के परिणामों की एक अखण्ड सांकलरूप उत्पाद-व्ययध्रौव्य की बात है। द्रव्य अपने परिणाम-स्वभाव में स्थित है। __यहाँ प्रथम, परिणामों का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वभाव सिद्ध करते हैं और पश्चात् यह सिद्ध करेंगे कि परिणाम-स्वभाव में स्थित होने से वह द्रव्य भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्त सत् हैं । ज्ञाता द्वारा वस्तु के ऐसे स्वभाव को मानना, स्वीकार करना और ज्ञेयों में फेरफार करने की मान्यता छोड़ना सम्यक्त्व है तथा पदार्थों के स्वभाव का ज्ञाता रहना ही वीतरागतारूप धर्म है। इस प्रवचनसार में पहले तो ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन में आत्मा का ज्ञानस्वभाव प्रवचनसार-गाथा ९९ निश्चित किया है और फिर दूसरे अधिकार में ज्ञेयतत्त्वों का वर्णन किया है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान ही है और जीव-अजीव में अपने-अपने अवसर में होने वाले तीनकाल के परिणाम ज्ञेय हैं - ऐसी प्रतीति होने पर वस्तु-व्यवस्था में फेरफार या पर्यायों में आगे-पीछे करने की बुद्धि नहीं रहती; इसलिए ज्ञान स्व में स्थिर हो जाता है। यही वीतरागता और केवलज्ञान का यथार्थ कारण है। पदार्थों का जैसा सत्स्वभाव हो, वैसा माने तो मान्यता सत्य कहलाये; किन्तु पदार्थों के सत्स्वभाव से अन्य प्रकार माने तो वह मान्यता मिथ्या है। यहाँ 'सत्' की श्रद्धा कराते हैं। 'सत्' द्रव्य का लक्षण है और वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य वाला है। द्रव्य के ऐसे सत्स्वभाव की प्रतीति करना ही सम्यग्दर्शन है; क्योंकि यही सच्चा तत्त्वार्थश्रद्धान' है। इस समय बात तो परिणामों की चल रही है, किन्तु परिणाम के निर्णय में परिणामी द्रव्य का निर्णय भी आ जाता है, क्योंकि वे परिणाम त्रिकाली द्रव्य के ही हैं। परिणाम परिणामी से अभिन्न होने से एक के निर्णय में दूसरे का निर्णय हो ही जाता है। परिणाम अधर में नहीं होते, किन्तु परिणामी के आधार से ही परिणाम हैं; इसलिए परिणाम का निर्णय करने से परिणामी द्रव्य का निर्णय हो जाता है और अकेले परिणाम पर से रुचि हटकर त्रिकाली द्रव्यस्वभाव पर ज्ञान का झुकना सम्यग्दर्शन है और यही वीतरागता का मूल है। इस गाथा में वस्तु-स्थिति का अलौकिक रीति से वर्णन किया है। समस्त द्रव्य 'सत्' है और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-सहित परिणामस्वभावी है - ऐसा इस गाथा में सिद्ध किया है। टीका में प्रथम तो द्रव्य में समग्रपने से अनादि-अनंत प्रवाह की एकता और फिर प्रवाहक्रम में प्रवर्तमान सूक्ष्म अंशरूप परिणामों का परस्पर व्यतिरेक सिद्ध किया है। तत्पश्चात् समुच्चयरूप से सम्पूर्ण द्रव्य के
SR No.008362
Book TitlePadartha Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size148 KB
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