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नींव का पत्थर
सबै दिन जात न एक समान
जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है" इस लोकोक्ति के अनुसार जीवराज और समता ने अपनी दोनों सन्तानों को प्रारंभ से ही ऐसे सदाचार के संस्कार दिए ताकि वे सन्मार्ग से न भटक सकें।
जीवराज अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में जब स्वयं सही रास्ते से भटक गये थे और मोहनी से उनके जो संतानें हुईं। वे सब उनकी ही लापरवाही से सन्मार्ग से भटके थे। अतः उन्होंने सोचा “अब तो प्रत्येक - नया कदम सोच-समझ कर ही उठाना होगा।" और उन्होंने ऐसा ही किया।
आ जाता है तो वह भूला नहीं कहलाता।'
कुछ लोग प्रथम श्रेणी के ऐसे समझदार होते हैं कि दूसरों को ठोकर खाते देख स्वयं ठोकर खाने से बच जाते हैं। दूसरी श्रेणी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो स्वयं ठोकर खाकर सीखते हैं तथा तीसरी श्रेणी के कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो ठोकरों पर ठोकरें खाते हैं, फिर भी नहीं सीखते, संभलते - ऐसे लोगों को कोई नहीं बचा सकता।
समता ने मन ही मन कहा - "हमारे पतिदेव जीवराज प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण तो नहीं हो पाये; पर मुझे विश्वास है और आशा है कि वे दूसरी श्रेणी में तो उत्तीर्ण हो ही जायेंगे। अतः मैं उनसे मिलूँगी और बिना कुछ क्रिया-प्रतिक्रिया प्रगट किए, बिना कोई कम्पलेन्ट एवं कमेन्टस किए, उनके अहं को ठेस पहुँचाये बिना, उनकी मान मर्यादा का पूरा-पूरा ध्यान रखते हुए उन्हें पुनः घर वापिस लौटने हेतु विनम्र निवेदन करूँगी। उनसे कहूँगी - “कोई बात नहीं, आप भूत को भूल जाइए गल्तियाँ होना मानवीय कमजोरी है, जो यदा-कदा अच्छे-अच्छों से भी हो जाती हैं।"
वह जीवराज से मिली, उन्हें देखते ही उसका गला भर आया, कंठ रुंध गया। उसने जो कुछ सोचा था, कुछ भी नहीं कह सकी । जीवराज भी अपनी करनी पर इतना पश्चाताप कर चुके थे कि उनके सारे पाप पहले ही पश्चाताप की आग में जलकर खाक हो गये थे, रहे-सहे अश्रुधारा में बह गये।
जिस तरह सोना आग में तपकर कुन्दन बन जाता है, जीवराज भी पश्चाताप की ज्वाला में तपकर मानसिक रूप से कुन्दन की तरह पवित्र हो गया था। आंखों ही आंखों में जीवराज और समता पुनः बिना किसी कंडीशन (शर्त) के एक आदर्श पति-पत्नी के रूप में शेष जीवन जीने के संकल्प के साथ वापिस निज घर लौट आये।
सुखद संयोग में जीवन यापन करते हुए उनके दो संतानें हुई। पुत्र का नाम रखा विराग और पुत्री का नामकरण किया ज्योत्सना। “दूध का
यह तो बहुत अच्छा हुआ, जो उन्होंने अपने शेष जीवन को सात्विकता से जिया; परन्तु वे अभी भी अतीन्द्रिय आनन्द की अनुभूति करने से वंचित ही हैं; क्योंकि अब तक उन्हें उस अतीन्द्रिय आत्मिक आनन्द पाने के लिए जिस अन्तर्मुखी उपयोग की आवश्यकता होती है, वह उपयोग जिन कारणों या साधनों से अन्तर्मुखी होता है, वे साधन उनके पास नहीं हैं।
अन्तर्मुखी उपयोग करने का एकमात्र उपाय वस्तु स्वातंत्र्य की यथार्थ समझ और श्रद्धा ही है; क्योंकि वस्तु स्वातंत्र्य के ज्ञान-श्रद्धान बिना अन्य के भले-बुरे करने का भाव निरन्तर बना रहता है। ____ हम अनादिकाल से अपनी मिथ्या मान्यता के कारण ऐसा मानते आ रहे हैं कि “मैं दूसरों का भला-बुरा कर सकता हूँ, दूसरे भी मेरा भलाबुरा कर सकते हैं। इसकारण हम निरन्तर दूसरों का भला या बुरा करने तथा दूसरे हमारा बुरा न कर दें इस चिन्ता में आकुल-व्याकुल बने रहते हैं। और इनके कर्तृत्व के भार से निर्भार नहीं हो पाते।'
जब हम वस्तु-स्वातंत्र्य के सिद्धान्त के माध्यम से यह समझ लें कि न केवल प्रत्येक प्राणी; बल्कि पुद्गल के प्रत्येक परमाणु का परिणमन भी स्वाधीन है, किसी भी जीव के सुख-दुःख का कर्ताहर्ता कोई अन्य नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र है, स्वाधीन है,
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