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________________ नींव का पत्थर ध्यान दें, कर्मों की विविध प्रकृति-प्रदेश-स्थिति-अनुभाग रूप विचित्रता भी जीवकृत नहीं है, पुद्गल कृत ही है। जीव के परिणाम तो निमित्तरूप में मात्र उपस्थित होते हैं, वे कर्मों के कर्ता नहीं।" __पुनः प्रश्न - "क्या जीव कर्म के उदय के अनुसार विकारी नहीं होता?" जिनसेन का उत्तर - “नहीं, कभी नहीं; क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर तो सर्वदा विकार होता ही रहेगा; क्योंकि संसारी जीव के कर्मोदय तो सदा विद्यमान रहता ही है। पुनः प्रश्न - "तो क्या पुद्गल कर्म भी जीव को विकारी नहीं करता?" जिनसेन का उत्तर - “नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की परिणति का कर्ता नहीं है।" जब स्व में ही निज शक्तिरूप षट्कारक हों, तभी वस्तु पूर्ण स्वतंत्र एवं स्वावलम्बी हो सकती है। प्रत्येक वस्तु का जितना भी 'स्व' है, वह स्व के अस्तित्वमय है। उसमें पर के अस्तित्व का अभाव है। सजातीय या विजातीय कोई भी वस्तु अपने से भिन्न स्वरूप सत्ता रखनेवाली किसी भी अन्य वस्तु की सीमा को लांघ कर उसमें प्रवेश नहीं कर सकती; क्योंकि दोनों के बीच अत्यन्ताभाव की बज्र की दीवाल है, जिसे भेदना संभव नहीं है।" शिष्य ने विनयपूर्वक प्रश्न किया :- “विकारी पर्यायों को भी स्वतंत्र मानने का क्या कारण है, जबकि उनमें कर्म का उदय निमित्त होने से पराधीन कहने का व्यवहार क्या है?" उत्तर :- “परकृत मानने से पर के प्रति रागद्वेष की संभावना बढ़ जाती हैं और स्वकृत मानने से अपनी कमजोरी की ओर ध्यान जाता है। प्रत्येक द्रव्य स्वयं कर्ता होकर अपना कार्य (कर्म) करता है और करण, सम्प्रदान, अपादान तथा अधिकरण आदि छहों कारक रूप से भी द्रव्य स्वयं निज शक्ति से परिणमित होता है। न तो द्रव्य सर्वथा नित्य है आयोजन का प्रयोजन पहचानें और न ही सर्वथा क्षणिक है; अपितु वह अर्थ क्रिया करण शक्तिरूप है। वह अपने गुणमय स्वभाव के कारण एकरूप अवस्थित रहते हुए भी स्वयं उत्पाद-व्यय रूप है। और भेदरूप या पर्यायरूप स्वभाव के कारण सदा परिणमनशील भी है। यही वस्तु का वस्तुत्व है। तात्पर्य यह है कि - वह द्रव्यदृष्टि से ध्रुव है और पर्यायदृष्टि से उत्पाद-व्यय रूप है।" दूसरे शिष्य ने जिज्ञासा प्रगट की - “यदि यह बात है तो आगम में उत्पाद-व्यय रूप कार्य को पर सापेक्ष क्यों कहा?" जिनसेन ने समाधान किया - “पर्यायार्थिकनय से तो प्रत्येक उत्पाद-व्यय रूप कार्य अपने काल में स्वयं के षट्कारकों से ही होता है, अन्य कोई उसका कर्ता-कर्म आदि नहीं है, फिर भी आगम में उत्पादव्ययरूप कार्य का जो पर सापेक्ष कथन है, वह केवल व्यवहारनय (नैगमनय) की अपेक्षा से किया गया है।" पुनः प्रश्न - “आत्मा की कौन-कौन-सी शक्तियाँ वस्तु के स्वतंत्र षट्कारकों की सिद्धि में साधक हैं ?" उत्तर :- “भाई ! तुम्हारा यह प्रश्न भी प्रासंगिक है, वैसे तो सभी शक्तियाँ वस्तु की स्वतंत्रता की ही साधक हैं, उनमें कतिपय प्रमुख शक्तियाँ इसप्रकार हैं १. भावशक्ति :- इस शक्ति के कारण प्रत्येक द्रव्य अन्वय (अभेद) रूप से सदा अवस्थित रहता है। यह शक्ति पर कारकों के अनुसार होनेवाली क्रिया से रहित भवनमात्र है, अत: इस शक्ति द्वारा द्रव्य को पर कारकों से निरपेक्ष कहा है, इससे द्रव्य की स्वतंत्रता स्वतः सिद्ध हो जाती है। २. क्रियाशक्ति :- इस शक्ति से प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप सिद्ध कारकों के अनुसार उत्पाद-व्यय रूप अर्थ क्रिया करता है। ३. कर्मशक्ति :- इस शक्ति से प्राप्त होने वाले अपने सिद्ध स्वरूप को द्रव्य स्वयं प्राप्त होता है। (48)
SR No.008361
Book TitleNeev ka Patthar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages65
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size233 KB
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